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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपना भाई बना लेंगे; और वे न बनें तो भाईके हाथों मरने-जैसा सुख दूसरा क्या होगा? ऐसा कहते हुए तो जरूर बदनमें खून दौड़ने लगता है।

पर करते हुए?

मुझे तो विश्वास है कि दब्बू गुजरात इस बार जौहर कर दिखायेगा। परन्तु यह बात लिखते हुए कलम भारी पड़ जाती है। गुजरातने बन्दूकोंके धड़ाके किस दिन सुने? गुजरातने लहूकी नदियाँ कब देखीं? क्या गुजरातसे यह दृश्य देखा जा सकता है कि पटाखोंकी तरह तड़ातड़ बन्दूकें चल रही हैं और मिट्टीके घड़ोंकी तरह लोगोंके सिर धड़ाधड़ फूट रहे हैं?

अगर गुजरात औरोंके सिरोंको फूटते हुए देख सके तो वह ‘गर्मी गुजरात’ न रहे। अगर गुजरात अपने ही सिरोंको टूटते हुए देखे तो अमरत्वको प्राप्त करे। इसके लिए किस तालीमकी जरूरत है?

विश्वासकी। यह विश्वास समितिके प्रस्तावोंसे नहीं मिल सकता। ईश्वर दीन- दुखियोंका वाली है; ईश्वर हिम्मतका देनेवाला है। “राम राखे तो कोई न चाखे।” यह देह उसीका दिया हुआ है। वह खुशीसे इसे ले जाये। देहको सुरक्षित रखनेसे कहीं वह चिरस्थायी हो सकता है? रुपयेकी तरह देहका भी विनियोग अच्छे काममें ही करना उचित है। और देह अर्पण करने के लिए इस अत्याचारसे मुक्त होने जैसा सुअवसर दूसरा क्या होगा? इस तरह जो सच्चे दिलसे मानता है वह तो मुसकराते हुए छाती खोलकर बेधड़क और बेफिक्र होकर गोलियोंको गेंदकी तरह झेल लेता है।

इतना अटल विश्वास अगर हो तभी गुजरातकी किसी तहसीलको इस रणमें सामने आना चाहिए।

सब लोगोंको इतना विश्वास न भी हो तो हर्ज नहीं। इतना विश्वास कमसे-कम कितने लोगोंको होना चाहिए इसका अन्दाज मैं दे चुका हूँ। दूसरे लोगोंको गोलियोंका स्वागत करने की हिम्मत न हो तो भी हानि नहीं। पर उनमें इतनी दृढ़ता तो अवश्य होनी चाहिए कि चाहे उनका सारा घर-बार क्यों न लूट लिया जाये, पर वे हरगिज टससे-मस नहीं होंगे। भले ही घर-बार लूट लिये जायें। जीते रहेंगे तो फिर उन्हीं में जायेंगे और उनको लेनेका प्रयत्न करते हुए मर मिटेंगे; यही स्वराज्य है।

अगर इतना बल किसी एक तहसीलमें भी न हो तो फिर हम स्वराज्यके योग्य किस तरह हो सकते हैं? परन्तु जिस दिन एक भी तहसील इस परीक्षामें उत्तीर्ण हो जायेगी, बस, उसी दिन स्वराज्यकी उपलब्धि हो जायेगी। क्योंकि उसी दिन हिन्दुस्तान दिव्य शस्त्रके उपयोग करनेमें कुशल माना जायेगा।

पर इससे यह न समझना चाहिए कि हममें बहुत बल आ गया है। यह तो आत्माका स्वभाव ही है। बोअर लोगोंकी स्त्रियोंने ऐसी बहादुरी दिखाई है। लाखों अंग्रेज ऐसी वीरताका परिचय दे चुके हैं, और तुर्क स्त्री-पुरुष तो आज भी उसको प्रकट कर रहे हैं।

परन्तु भेद है। वे तो मारते भी हैं और मरते भी हैं। लेकिन हम जानते हैं कि अमरता तो मरनेमें ही है। मारनेका काम छोड़कर मरनेका ही काम सीखनेमें क्या कोई कठिनाई है? मरना सीखनेके लिए तो हिम्मतकी जरूरत है। और विश्वास