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पत्र: महादेव देसाईको

रखनेवालेमें वह निमिष-मात्रमें आ जाती है। मारना सीखनेके लिए शरीरकी जरूरत है, बन्दूक चलानेके मुहावरेकी जरूरत है। ऐसे हजारों ढकोसले जाननेके बाद कहीं मरना सीखनेकी नौबत आती है और फिर भी अन्तको “खूनी” लोगोंमें ही गिनती होती है।

पर कोई हिन्दू भाई कहेंगे कि ये बातें तो क्षत्रियत्व की हैं। गुजरातसे क्षत्रित्वका क्या वास्ता? हम तो एक व्यापार मात्र करना जानते हैं। गुजरात चाहे भले ही ऐसा हो, परन्तु हिन्दुत्व ऐसा नहीं। चारों वर्णोंमें चारों गुण अवश्य होने चाहिए। हाँ, यह सच है कि हरएकमें अपना-अपना गुण विशेष रूपसे होता है; परन्तु अगर दूसरे गुण उसमें बिलकुल न हों तो वह नपुंसक है। जो माता अपने बच्चेके लिए मरना जानती है वह क्षत्राणी है, और जो पति अपनी पत्नीके लिए प्राण देता है, वह भी क्षत्रिय है। परन्तु इन सबका कर्त्तव्य जगत्की रक्षा करना नहीं है; अतएव हम उन्हें क्षत्रियके रूपमें नहीं पहचानते।

इस समय तो जगतकी―हिन्दुस्तानकी―रक्षा करना हरएकका धर्म है; क्योंकि वह धर्म आज किसीका नहीं रहा है―और न किसीका दिखाई ही देता है।

यह तो हिन्दुओंकी बात हुई। गुजरातके मुसलमान, पारसी, आदि क्या करें? हिन्दुस्तान उनका भी है; गुजरात उनका भी है। उन्हें भी हिन्दुस्तानको गुलामीसे छुड़ाना है। और वे भी केवल मरकर ही ऐसा कर सकते हैं।

अतएव क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, पारसी, ईसाई, और क्या यहूदी―जो अपनेको हिन्दुस्तानी मानते हैं उन सबको मरनेका मन्त्र सीखना है और उसकी साधना करना है। इस पाठको तो केवल वही पढ़ सकता है और वही बरत सकता है जो एकमात्र ईश्वरमें भरोसा रखता है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १३-११-१९२१
 

१८५. पत्र: महादेव देसाईको

साबरमती
मंगलवार [१५ नवम्बर, १९२१]

चि० महादेव,

बिना रोये तो माँ भी दूध नहीं देती, आवाज लगाये बिना बेर भी नहीं बिकते। माँ बिचारी क्या जाने कि बालकको क्या चाहिए और बेरवालीके टोकरेकी दशा तो वही जाने। इसलिए तुमने माँगा और लिया, इसमें शरमानेकी क्या बात है?

तुम्हारे भजन मिले हैं। उन्हें पढ़ गया हूँ। मुमकिन है बीमारीमें काव्यशक्ति अधिक बढ़ती हो लेकिन क्या उसका प्रयोग करने से स्वस्थ होने में अधिक समय नहीं लगेगा? अगर इस काव्यशक्तिको संगृहीत कर रखा जाये तथा स्वस्थ होने के बाद भी वह प्रकट हो तो वह और भी सराहनीय होगी।