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भाषण: राजचन्द्र जयन्तीके अवसरपर, अहमदाबादमें

सभ्यताका एक अत्यन्त सरल नियम है। आजके विषयको ध्यानमें रखकर कहूँ तो यह नियम दयाधर्मका प्रथम पाठ है।

हमें स्वयं असुविधाको सह लेना चाहिए ताकि दूसरोंको सुविधा हो सके। जिस घड़ी जो इच्छा हो उसपर तुरन्त अमल कर देना, उसका दुनियापर क्या असर होगा, इसका विचार भी न करना―यह संयम नहीं है, यह तो स्वच्छन्दता है। यह देवोचित प्रवृत्ति नहीं बल्कि राक्षसी प्रवृत्ति है। अव्यवस्थाको ही व्यवस्था मानना राक्षसी प्रवृत्तिका ही लक्षण है। जहाँ शोरगुल ही हो रहा हो, किसीको किसीका कोई विचार न हो, किसीका कोई सम्मान न हो, वहाँ, यही कहना होगा कि राक्षसी प्रवृत्ति चल रही है। राक्षसी प्रवृत्तिका कोई ऐसा विशेष चिह्न नहीं बताया जा सकता जिसे देखकर हम तुरन्त पहचान लें कि यह राक्षसी प्रवृत्ति है। प्रत्येक प्रवृत्ति हमेशा मिश्रित होती है। जिस प्रवृत्तिसे ऐसा प्रकट होता हो कि लोगोंके हृदयमें ज्यादातर अशान्ति है, जिस प्रवृत्तिसे अशान्तिकी आकृति खड़ी होती हो, उस प्रवृत्तिको राक्षसी प्रवृत्ति ही कहेंगे।

आजकल “राक्षसी” शब्दका उपयोग मैं सबसे ज्यादा करता हूँ। इस शब्दका प्रयोग करना मुझे अच्छा लगता है, सो बात नहीं। सारी दुनिया भले वैसा मान ले, लेकिन मेरी अपनी आत्मा गवाही देती है कि मेरे इस शब्दका प्रयोग करनेमें दयाके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसमें द्वेष नहीं है, रोष नहीं है। मैं वस्तुस्थितिको जिस तरह देख रहा हूँ उसी तरह उसका चित्रण कर रहा हूँ। उसमें मैं दयाधर्मका पालन कर रहा हूँ। दयाधर्मके चिन्तनके लिए आजके अवसरका दुगुना स्वागत किया जाना चाहिए।

जिस पुरुषके स्मरणार्थ हम यहाँ आये हैं उसके हम पुजारी हैं। मैं उसका पुजारी हूँ। टीकाकार किसी भी दिन पुजारी नहीं हो सकता। इसलिए जिनके मनमें टीकाका भाव है उनके लिए यह प्रसंग नहीं है। टीकाकार भी शंका-समाधान के लिए नम्र बनकर भले आयें, लेकिन अगर उनका इरादा अपनी शंकाको पोषित करनेका हो तो सभ्यताका यह तकाजा है कि आज उनका यहाँ कोई काम नहीं है। जगत्में सबको स्वतन्त्रता होनी चाहिए। यह सच है कि टीकाकारको जगतमें स्थान होना चाहिए लेकिन भक्तके―पुजारीके ―लिए भी ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ टीकाकार न हो और वह अपना कार्य निर्विघ्न सम्पन्न कर सके। इसलिए मैं यह माने लेता हूँ कि आज वही लोग यहाँ आये हैं जिनके मनमें कविश्रीके[१] प्रति प्रेमभाव है और जो उनके भक्त हैं। ऐसे श्रद्धालुओंको ही मैं कहना चाहता हूँ कि आजके प्रसंगका दूने उत्साहसे स्वागत किया जाना चाहिए।

जिनका पुण्य-स्मरण करनेके लिए हम यहाँ इकट्ठे हुए हैं वे दयाधर्मकी मूर्ति थे। उन्होंने दयाधर्मको जान लिया था और अपने जीवनमें उसका विकास किया था। इस समय हिन्दुस्तानमें हम जो काम कर रहे हैं उसमें भी दयाधर्म ही निहित है। यह काम हम रोषसे प्रेरित होकर नहीं कर रहे हैं। वस्तुस्थिति ऐसी आ पड़ी है कि हमें रोषके जबरदस्त कारण मिले हैं, हमें अत्यन्त आघात पहुँचा है। उस समय भी हमें

 
  1. अर्थात् श्रीमद् राजचन्द्र।
२१-२९