सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/४८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४५३
भाषण : राजचन्द्र जयन्ती के अवसरपर, अहमदाबादमे


कर रहे हैं। वे तो चींटियोंको 'चून' डालते हैं । आलू उनके मुँहमें चला जाये तो उन्हें दुःख होता है । ऐसी छोटी-छोटी बातोंमें वे धर्मका पालन करते हैं। उनकी यह सावधानी उन्हें मुबारक हो लेकिन जो यह मानते हैं कि इनमें ही जैन-धर्मकी परिसीमा है, वे लोग धर्मकी निम्न से निम्नतर श्रेणी में आते हैं । इतना सा धर्म तो पतितका धर्म है, यह पुण्यवान्का धर्म नहीं है ।" इसलिए अनेक श्रावक कहते हैं कि राजचन्द्रको धर्मका भान न था, वे दम्भी थे, अहंकारी थे। मैं स्वयं तो यह जानता हूँ कि उनमें दम्भ अथवा अहंकारका नाम भी न था ।

यद्यपि खटमल आदि जन्तुओंको नष्ट नहीं करना चाहिए तथापि उनको न मारने तक ही दयाधर्म सीमित नहीं है । उन्हें न मारना धर्मकी पहली सीढ़ी-भर है । किसी समय लोगों में ऐसी मान्यता रही होगी कि मनुष्यको बचानेकी खातिर किसी भी जन्तुकी हत्या करना पाप नहीं है; उस समय कोई साधु खड़ा हुआ होगा और उसने जन्तुओं- की रक्षापर अधिक जोर दिया होगा । इस साधुने कहा होगा कि 'मूर्ख ! इस क्षणभंगुर देहकी खातिर जन्तुओंका नाश न कर। बल्कि तेरे मनमें इस बातकी आतु- रता होनी चाहिए कि यह देह कल नष्ट होता हो तो आज ही नष्ट हो जाये । " और इससे अहिंसाका जन्म हुआ होगा । लेकिन जो खटमलको तो नहीं मारता परन्तु अपनी स्त्री और पुत्रपर हाथ उठाता है वह व्यक्ति न तो जैन है, न हिन्दू है और न वैष्णव ही है; वह तो शून्य है । हम कविश्री के जन्मोत्सव के मंगल अवसरपर दयाधर्मके संकुचित अर्थको छोड़ उसके व्यापक अर्थको ग्रहण करें। एक भी जीवको दुःख देना, उसे दुश्मन मानना, पाप है। जो यह चाहते हैं कि जनरल डायरको फाँसी दी जाये, सर माइकेल ओ'डायरको सुलगती हुई भट्टीमें झोंक दिया जाये • वह श्रावक नहीं है, वैष्णव भी नहीं, और न हिन्दू ही । वह कुछ भी नहीं है । अहिंसाका रहस्य यही है कि क्रोधका शमन करें, आत्माकी मलिनताको दूर करें । जनरल डायरकी परीक्षा लेनेवाला मैं कौन हूँ? मैं जानता हूँ कि मैं रोषसे भरा हुआ हूँ। मैं मन-ही-मन कितने ही लोगों- की हत्या करता होऊँगा, तब तो जनरल डायरका विचार करनेवाला मैं कौन ? इसलिए मैंने निश्चय किया है कि अगर कोई मुझे तलवारसे मारे तो भी मुझे उसको नहीं मारना है । यह दयाधर्म है; यही असहयोग आन्दोलनका रहस्य है ।

लेकिन जब मैं बोलता हूँ तब मैं दयाधर्म शब्दका प्रयोग नहीं करता । आज रायचन्दभाईकी जयन्ती होने के कारण मैं दयाधर्मकी बात करता हूँ। मैं जानता हूँ कि इस आन्दोलनका परिणाम तो यही है और यह परिणाम होगा तो लोग अपने-आप ही इस बातको जान लेंगे ।

सर्पको मारनेमें पाप है लेकिन उसकी अपेक्षा मनुष्य शरीरधारी सर्प अथवा बाघको मारनेमें अधिक पाप है। पशु-बाघको तो हम भयवश होकर मारते हैं, क्रोध से प्रेरित होकर नहीं । यदि वास्तवमें कोई धर्मराज है और वह हमारे पाप-पुण्यका निर्णय करता है तो वह बाघको मारनेवाले व्यक्तिपर दया खाकर कदाचित् उसे माफ कर देगा। क्योंकि उसमें तो उस व्यक्तिने अपने पशुधर्मका ही पालन किया, एक पशु दूसरे पशुको मार डाला। लेकिन मनुष्यकी हत्या करनेमें तो क्रोधका भाव होता है, अभिमान होता है, दम्भ होता है । धर्मराज कहेगा : 'अरे मूर्ख ! तूने अमुक