पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/५०१

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टिप्पणियाँ ४६९ रहे । जब कुम्भकोणमके शंकराचार्य जिलेमें घूमते हुए हमारे इलाकेमें पधारे तो हम भी उनको भेंट देने गये । परन्तु उन्होंने हमारी भेंट स्वीकार नहीं की, क्योंकि हमने अपनी जीविकाके लिए श्रम करनेका पाप किया था। किन्तु मैं श्री शंकराचार्य के इस व्यवहारसे तनिक भी हतोत्साहित नहीं हुआ हूँ।" मैं इन भाइयोंको उनकी लोकसेवाकी भावनापर बधाई देता हूँ । एक अत्याचारी समाजसे निकाल दिया जाना वास्तवमें योग्यताका पुरस्कार है और उसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह कहना कि ब्राह्मणको हल नहीं छूना चाहिए, वर्णाश्रम धर्मका मजाक है और 'भगवद्गीता' के अर्थका अनर्थ है। विभिन्न वर्णोंकी जो मुख्य विशेषताएँ बताई गई हैं, वे निश्चय ही अन्य वर्णोंके लिए निषिद्ध नहीं हैं। क्या वीरता केवल क्षत्रियका ही और संयम केवल ब्राह्मणका ही विशेषाधिकार है ? क्या ब्राह्मणों, क्षत्रियों और शूद्रोंको गो-रक्षा नहीं करनी चाहिए ? जो व्यक्ति गौ के लिए मरने को तैयार न हो, क्या वह हिन्दू रह सकता है ? फिर भी यह बहुत ही अजीब बात है कि मद्रास अहातेसे आये एक पत्रमें गम्भी- रतापूर्वक यह कहा गया है कि वैश्योंके सिवाय अन्य किसीका गो-रक्षासे कोई सरोकार नहीं है। जब धृष्टताके साथ इतना अधिक अज्ञान भी हो तो सर्वश्रेष्ठ उपाय यही है कि मनुष्य तमाम खतरे उठाकर सुधारके मार्गपर चलता रहे और यह आशा रखे कि समय आनेपर उसकी सच्चाई सिद्ध हो जायेगी। यदि हम दृढ़ता और प्रेमसे काम करें तो अन्तमें हम समस्त विरोधको निरस्त्र कर देंगे । सुधारकोंको न तो पश्चात्ताप करना चाहिए और न क्रुद्ध ही होना चाहिए । थियेटरोंमें खादी एक पत्रमें सुझाव दिया गया है कि यदि बम्बई और अन्य स्थानोंके सभी थिएटर अपनी वेशभूषाके लिए खादीका उपयोग करने लगें, तो इससे खादीका चलन बढ़ जायेगा । विचार निश्चय ही बहुत अच्छा है। परन्तु इसका लागू होना बहुत हदतक दर्शकों- पर निर्भर करता है। यदि दर्शक खादीकी वेशभूषाके लिए आग्रह करने लगें तो थिएटरोंके मालिक उसे प्रयोग में लानेको बाध्य हो जायेंगे। उनकी रुचि आम तौरपर वैसी ही होती है जैसी जनता बनाती है। थिएटरोंमें खादीकी पोशाकोंका उपयोग जारी करनेका सबसे अच्छा तरीका यही है कि नाटकोंके दर्शक खादीकी पोशाकोंकी माँग करने लगें। उन्हें इस बातपर भी नजर रखनी होगी कि कहीं चुपकेसे वहाँ नकली खादी न आ घुसे, क्योंकि अन्य स्थानोंकी अपेक्षा थिएटरोंमें तथाकथित कला या रुचिके नामपर सत्यकी बलि दिये जानेकी अधिक संभावना रहती है। मैं समझता हूँ कि दर्शक रंगों और तड़क-भड़कपर जोर देंगे। उधर, खादीमें रंगोंका हल्का और सुन्दर समन्वय तो पूर्णतया सम्भव है और उसमें कुछ सजावट भी लाई जा सकती है; परन्तु मोटी किस्ममें और उसीको लोकप्रिय बनाना जरूरी है • विचित्र रंगोंका मेल करनेसे वह भद्दी ही लगेगी। इसलिए थिएटरोंमें खादीको बड़े पैमानेपर अपनानेका अर्थ है जनताकी रुचिमें क्रान्ति लाना और उसे फिर सादगी और स्वाभाविक सौन्दर्यकी ओर मोड़ना । हमारे आजके थिएटर अन्य देशोंके थिएटरोंकी तरह राष्ट्रीय नैतिकता या राष्ट्रीय रुचिकी कसौटी नहीं हैं, बल्कि वे विकृत रुचियों और राष्ट्रके अप्राकृतिक व अपरिपक्व विकासके फल हैं । यदि कोई साहसी व्यवस्थापक लोक-रुचिमें प्रगतिकारी -- -- Gandhi Heritage Portal