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रहे, परन्तु ईश्वर उन्हें उनकी आशासे भी बढ़कर सफलता देगा। जो लोग शान्तिपूर्वक चुपचाप कार्य करते हैं वही सफलताके अधिकारी होते हैं। लाखों आदमी आज उनपर दृष्टि जमाये हुए हैं और वे उनके विषयमें विचार कर रहे हैं। परन्तु इन सबसे बढ़कर एक शक्ति है जो उनके दैनिक जीवनके प्रत्येक संघर्षको बड़े गौरसे देख और विचार रही है और जब उनके दीर्घ परिश्रम और संघर्षके ये दिन समाप्त हो जायेंगे तब उनका काम और नाम संसारमें अमर हो जायेगा। उनके कठोर परिश्रमके द्वारा जिन लाखों लोगोंको आजादी मिलेगी वे उनके नामकी पूजा करेंगे। परमात्मा उन्हें तथा उनकी प्रिय धर्मपत्नीको आशीर्वाद दें, उन्हें चिरायु करें और आरोग्य तथा बल प्रदान करें जिससे वे इस संघर्ष में शीघ्र ही जय लाभ करें। मेरा विश्वास है कि संघर्ष ज्यादा लम्बा नहीं चलेगा और जल्दी ही सफलतापूर्वक समाप्त हो जायेगा।

पाठकोंके सम्मुख इस पत्रको उपस्थित करते हुए मुझे संकोच हो रहा है। व्यक्ति-विषयक न होते हुए भी यह कितना व्यक्ति-विषयक है। परन्तु मेरा खयाल है कि मैं अहंकारकी भावनासे मुक्त हूँ। मैं समझता हूँ कि मैं अपनी दुर्बलताओंको खूब जानता हूँ। परन्तु मेरे हृदयमें ईश्वरके, उसकी शक्तिके और उसके प्रेमके प्रति जो श्रद्धा है वह अटल है, अविचल है। मैं तो उसके हाथमें कुम्हारके हाथमें मिट्टीकी तरह हूँ। इसलिए अगर ‘भगवद्गीता’ की भाषामें कहूँ तो ये सब स्तुति-स्तोत्र उसीके चरणोंमें समर्पित करता हूँ। हाँ, मैं मानता हूँ कि ऐसे आशीर्वचनोंसे शक्ति मिलती है। परन्तु इस पत्रको प्रकाशित करनेमें मेरा उद्देश्य यह है कि इससे प्रत्येक सच्चे असहयोगीको अपने अहिंसाके पथपर बढ़ते हुए उत्साह मिले और बनावटी लोग अपनी गलतियोंसे बाज आयें। यह एक बहुत ही सच्ची लड़ाई है। यद्यपि इसमें द्वेष करनेवाले लोग शामिल हैं तथापि यह द्वेषपर आधारित नहीं है। इस संग्रामकी भित्ति तो शुद्ध और निर्मल प्रेम है। यदि अंग्रेज भाइयोंके प्रति या उन लोगोंके प्रति जो “अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः” की तरह नौकरशाहीके पिट्ठू बने हुए है, मेरे मनमें जरा भी द्वेष-भाव होता तो मुझमें इतना साहस अवश्य है कि मैं इस संग्रामसे अलग हो जाऊँ। जिस मनुष्यके मनमें ईश्वर अथवा उसकी दयालुता अर्थात् न्यायपरायणताके प्रति जरा भी श्रद्धा है, वह मनुष्योंके प्रति द्वेष-भाव रख ही नहीं सकता―हाँ, उनके कुकर्मोंका तिरस्कार तो उसे अवश्य करना चाहिए। परन्तु वह मनुष्य खुद भी तो बुराइयोंसे बरी नहीं है। उसे हमेशा दूसरेकी दयाकी आवश्यकता रहती है। अतएव उसे उन लोगोंसे द्वेष कभी न करना चाहिए जिनमें वह बुराई पाता हो। सो इस युद्धका तो उद्देश्य ही यह है कि अंग्रेजोंके साथ और सारे संसारके साथ, भारतकी मैत्री हो।

यह हेतु झूठी खुशामदसे सिद्ध नहीं हो सकता; बल्कि तभी सिद्ध होगा जब हम भारतके अंग्रेजोंसे साफ-साफ कहेंगे कि भाइयो, आप कुमार्गपर जा रहे हैं और जबतक आप उसे न छोड़ेंगे तबतक हम आपके साथ सहयोग नहीं कर सकते। यदि हमारा यह खयाल गलत हो तो ईश्वर हमें क्षमा कर देगा; क्योंकि हम उनका बुरा नहीं चाह रहे हैं और उसके लिए हम उनके हाथों कष्ट भोगनेको भी प्रस्तुत हैं। यदि हम

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