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परिशिष्ट


हैं कि वे अहिंसात्मक आन्दोलनका सिद्धान्त स्वीकार नहीं करते । श्री गांधीने यह वादा किया था कि यदि उनके अहिंसात्मक आन्दोलनके तरीकेपर अमल किया जाये तो वे एक सालके अन्दर स्वराज्य हासिल कर लेंगे। उन लोगोंने उनके इस वादेको ध्यान में रखकर ही हिंसाका आग्रह छोड़ दिया था। वह साल बीत गया है और अब मुसलमानोंका खयाल है कि श्री गांधी के साथ किया गया समझौता समाप्त हो गया है । ... अतः अब मुसलमान उन शर्तोंसे बँधे हुए नहीं हैं जो श्री गांधीने स्वयं मान ली थीं ।...वे सरकारके विरुद्ध ही नहीं, उन दूसरोंके विरुद्ध भी जो उनके आन्दोलनमें शामिल न हों, हिंसा करनेसे न झिझकेंगे। अभी हालकी घटनाएँ इसका प्रमाण हैं ।

सभी परिस्थितियाँ इस निष्कर्षकी ओर संकेत करती हैं कि वे और उनके मित्र रिहा होनेपर आन्दोलन जारी रखेंगे । इसलिए मैं इनकी बिना शर्त रिहाईका आग्रह करना या इसे सरकारके साथ बातचीत करनेसे पूर्व शर्त की तरह पेश करना ठीक नहीं समझता । इनके साथ अलग किस्मके व्यवहारकी मांगका एकमात्र आधार बताया जाता है उनके निकट धार्मिक आदेशोंका देशके कानूनोंसे भी बढ़कर होना । किन्तु मलाबारमें जो कुछ हो रहा है, उसे देखते हुए इसे अमान्य करना होगा। बल्कि दूसरी और यह बिना शर्त रिहाईके खिलाफ जबरदस्त दलील है क्योंकि ऐसी रिहाईसे उन्हें ऐसा कार्य- क्रम अपनानेकी स्वतन्त्रता मिल जायेगी जिसे अदालतोंने गैरकानूनी घोषित किया है और जिसके परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं। इसका एक और कारण यह है कि श्री गांधी और उनके मित्र तथा स्वयं अभियुक्त गिरफ्तारियों तथा सजाओंका स्वागत करते हैं। इसलिए मैं विश्वास करता हूँ कि यदि मैं उनकी रिहाईकी माँगका उद्देश्य सरकारको नीचा दिखाना या प्रस्तावित गोलमेज सम्मेलनको होनेसे रोकना बताऊँ तो मैं अनुदार नहीं समझा जाऊँगा । सम्भव है कि इन लोगोंको रिहा न करनेकी बातका बहाना लेकर सविनय अवज्ञा अर्थात् लगानबन्दी आदि आरम्भ की जाये । तब आन्दोलनका गैरकानूनी रूप और भोंडापन बिलकुल नंगे रूपमें सामने आ जायेगा । यह उस नीतिकी समुचित परिणति ही है जिसका जन्म एक सालमें स्वराज्य प्राप्ति के झूठे वादेसे हुआ है। यह वादा अज्ञानी जनसाधारणको गुमराह करने के इरादेसे किया गया था। इसके सभी समझदार समर्थक यह जानते रहे होंगे कि इसे पूरा करना असम्भव है ।...

चूँकि मेरी राय है कि मैं श्री गांधी और उनके अनुयायियोंके सम्मेलनकी माँग करने में या किसी अन्य विषयमें, अनेक कारणोंसे जिनमें से कुछ ऊपर दिये गये हैं, साथ नहीं दे सकता और महत्त्वपूर्ण सवालोंपर जिनपर सम्मेलन श्री गांधीसे सहमत है मेरा सम्मेलनसे भी मतभेद है इसलिए मैं इस सम्मेलनको, जिसका मैं अध्यक्ष था, छोड़ देनेको बाध्य हूँ ।

सी० शंकरन नायर

[ अंग्रेजीसे ]
टाइम्स ऑफ इंडिया, १७-१-१९२२