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भूमिका

इस खण्ड में ४ मार्च, १९२२ से ७ मई, १९२४ तककी अवधिसे सम्बन्धित प्राप्त सामग्री आ जाती है। इस अवधि में लगभग २ वर्ष गांधीजी यरवदा जेल में रहे। भारतमें यह उनका पहला कारावास था। उस कालमें कौंसिल प्रवेशको लेकर कांग्रेस में फूट पड़ गई और देशके अनेक हिस्सों में हिन्दुओं और मुसलमानोंके सम्बन्ध भी तनावपूर्ण हो गये। इसलिए जब फरवरी १९२४ में अपेंडिसाइटिसके आपरेशनके बाद गांधीजीको समय से पहले रिहा करना जरूरी हो गया, तब उन्होंने बाहर आकर देखा कि देशकी राजनीतिक परिस्थिति और सर्वसामान्य वातावरण उनकी गिरफ्तारीके समय से भी ज्यादा मन गिरा देनेवाला है। कारावासकी अवधि में उनके मन और शरीरको थोड़ा आराम मिल गया था और इस आवासका उपयोग उन्होंने चिन्तन और ध्यानकी दिशामें किया। गिरफ्तार होनेसे कुछ महीने पहले उनका मन परेशान था। जेल में उन्होंने जल्दी ही अपनी स्वाभाविक शान्ति और गम्भीरताको पुनः प्राप्त कर लिया।

मार्च १९२२ के प्रारम्भिक दिनोंमें ही गांधीजीने अपनी गिरफ्तारीका अन्दाज लगा लिया था और वे उसे लगभग स्वागत करने योग्य मानने लगे थे। ७ मार्च, १९२२ को टी॰ प्रकाशम् के नाम लिखे गये अपने पत्र में उन्होंने कहा : "लोग यह भी कह रहे हैं कि ७ दिनके अन्दर-ही-अन्दर मेरे सिरका बोझ उतर जायेगा। (पृष्ठ २०) गिरफ्तारी के बाद दीनबन्धु एन्ड्रयूज को उन्होंने लिखा: "आखिर मुझे शान्ति मिल रही है। वह तो मिलनी ही थी।" (पृष्ठ ९९) मथुरादास विक्रमजीको उन्होंने लिखा : "मेरी शान्तिका पार नहीं है।" (पृष्ठ १००) लगातार शारीरिक गतिविधिका बोझ उतना नहीं था, जितना बोझ था एक वशसे बाहर परिस्थिति में सही निर्णय करते चले जानेका; शायद गांधीजीकी आन्तरिक शक्तियोंपर इस बातका सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। बार-बार और मनःपूर्वक शान्तिके लिए की गई उनकी अपीलोंके बाद भी जब देश में जगह-जगह हिंसा भड़क उठी, तो उससे गांधीजी बिलकुल हिल गये। अदालत के सामने अपने मुकदमेके दौरान उन्होंने इन हिंसक काण्डोंकी जिम्मेदारीको तत्परतासे स्वीकार किया। उन्होंने न्यायाधीशसे कहा : "रात-दिन सोतेजागते मैंने इसपर गम्भीरतासे विचार किया है और उसके बाद इसी निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि चौरीचौराके नृशंस अपराधोंकी या बम्बईके पागलपन-भरे कारनामोंकी जिम्मेदारीसे अपने-आपको अलग रखना मेरे लिए असम्भव है।" (पृष्ठ १२३) उन्हें लोगोंके इस पागलपनपर जितना दुःख था, सरकारके कारनामोंके प्रति भी उससे कम क्षोभ नहीं था। उन्होंने न्यायाधीशसे कहा कि आखिरकार कर्त्तव्यका निश्चय तो करना ही पड़ता है। "मैं या तो ऐसी व्यवस्थाको स्वीकार कर लेता, जिसने मेरी समझ में मेरे देशको अपूरणीय क्षति पहुँचाई है या फिर मैं यह खतरा मोल ले लेता कि मेरे देशवासी जब मेरे मुंहसे सचाईको समझेंगे तो उनमें रोषका उन्माद उमड़ सकता है।" (पृष्ठ १२३) अपने लिखित बयानके प्रारम्भ में उन्होंने जो कुछ कहा था,