पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/१२

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उसका अन्त इस तरह किया : "मेरा पूरा बयान सुनकर शायद आपको इस बातका अनुमान हो जायेगा कि मेरे भीतर ऐसा क्या-कुछ उमड़ रहा है जिसके कारण एक अच्छा-भला आदमी बड़े से बड़ा खतरा मोल लेने को तैयार हो सकता है।" (पृष्ठ १२४) उन्हें जिन बातोंके होनेका भय था, जब वे सामने आ गई तो उनका सिर लज्जासे झुक गया और उन्होंने कहा : "इस समय सत्यका मुझे जितना खयाल है, उतना एक वर्ष पहले न था; इस समय मैं अपनी अल्पताको जितना अनुभव कर रहा हूँ, उतना एक साल पहले नहीं कर पाता था।" (पृष्ठ १०४)

किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि गांधीजीने अपने मन में हार मान ली थी। फरवरीके शुरूमें चौरीचौरा हिंसाकाण्डके बाद गांधीजीने बारडोली ताल्लुके में प्रारम्भ किया जानेवाला सविनय अवज्ञा आन्दोलन अनिश्चित कालके लिए स्थगित कर दिया और असहयोग आन्दोलनमें निहित रचनात्मक कार्यक्रमपर अपनी शक्ति केन्द्रित करना प्रधान-कार्य मान लिया, ताकि सविनय अवज्ञाके लिए आवश्यक वातावरण तैयार किया जा सके। पत्रों और लेखोंके माध्यमसे उन्होंने लोगोंसे कहा कि यदि मैं गिरफ्तार कर लिया जाता हूँ, तो लोगोंको पूरी तरह शान्त रहना चाहिए और मेरे कारावासमें रहते हुए रचनात्मक कार्यक्रमको पूरे उत्साहके साथ अंजाम देते रहना चाहिए। कांग्रेस कार्यकारिणीके जिस प्रस्ताव द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन मुल्तवी किया गया था, उसकी आलोचना करनेवाले सज्जनोंसे उन्होंने प्रार्थना की कि वे केवल नीतिके तौरपर स्वीकृत अहिंसामें निहित अभिप्रायको पूरे मनसे स्वीकार करें। "हमारी अहिंसा बलवानकी अहिंसा भले न हो, पर उसे सच्चे लोगोंकी अहिंसा जरूर होना चाहिए।" (पृष्ठ २५)

मुकदमेके दौरान गांधीजीको ब्रिटिश शासनके नैतिक औचित्यको चुनौती देनेका अवसर मिल गया और इस अवसरका उन्होंने पूरी शक्तिके साथ उपयोग किया। अपने एक लिखित बयान में उन्होंने बताया कि वे एक कट्टर राजभक्त और सहयोगीसे राजनीतिक असन्तोषके हठी प्रचारक और असहयोगी क्योंकर बन गये। (पृष्ठ १२४) उन्होंने कहा कि यद्यपि यह बात तो मैंने दक्षिण आफ्रिकामें ही समझ ली थी कि भारतीय होने के नाते मैं सारे व्यक्तिगत अधिकारोंसे वंचित हूँ, किन्तु वे उन दिनों ऐसा मानते थे कि यह ब्रिटिश शासन-पद्धतिकी एक विकृति-मात्र है और मूलतः वह पद्धति अच्छी ही है। अपने सार्वजनिक जीवनमें २५ वर्षतक वे इसी विश्वासके आधारपर काम करते रहे। पहला धक्का तो उनको १९१९ में रौलट कानूनसे लगा और इसके बाद जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्डको राज्यके अधिकारीयोंने नजर-अन्दाज कर दिया तथा खिलाफतके मामलेपर भारतीय मुसलमानोंको दिये गये वचनको साम्राज्यीय सरकारने जब भंग किया, तब ब्रिटिश राज्यकी ईमानदारीपर से गांधीजीका भरोसा पूरी तरह उठ गया। वे इस अनुभवके बाद अंग्रेजोंके बारे में दूसरी तरहसे सोचने लगे और उन्हें मजबूरन मानना पड़ा कि ब्रिटिश राज्यने राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों दृष्टियोंसे भारतको इतना असहाय बना दिया है, जितना वह पहले कभी नहीं था। उन्होंने कहा, "मुझे तो इस बातमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि यदि हम सबके ऊपर