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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बूँद-बूँद से सरोवर भरता है उसी तरह यदि प्रत्येक व्यक्तिकी आमदनीमें दो पैसेकी वृद्धि हो जाये तो उसका क्या परिणाम होगा, यह तो अनुभवसे पता चलेगा। एक पैसेका पोस्टकार्ड, एक रुपये के नमकपर दो पाईका कर, रेलकी मुसाफिरीमें प्रति मील तीन अथवा चार पाई भाड़ा—इसमें सरकारका डाक विभाग मुनाफा कमाता है। और पोस्टमास्टर जनरलको हजारों रुपये वार्षिक वेतन मिलता है; नमकके करसे करोड़ोंकी आय होती है और रेलसे प्रति मील मिलनेवाली पाइयोंसे रेल-कम्पनी लाखों कमाती है।

यह हिसाब खादी के सम्बन्धमें भी लागू होता है। फर्क केवल इतना है कि सरकार दो-दो पाई कर लेकर हमपर हुकूमत चलाती है। वाइसरायको प्रतिमास २०,००० रुपये वेतन दिया जाता है और रेलकी आय में से विदेशियोंको काफी बड़ी रकम ब्याजमें मिलती है; किन्तु खादीकी आमदनी गरीबों के घरमें ही रहेगी और उन्हें तेजस्वी बनायेगी। ऐसे सहज धर्मका थोड़ा भी पालन अनेक दुःखोंका नाश कर सकता है। मेरी सब लोगोंको सलाह है कि वे जहाँ खादी बहुत जमा हो गई है वहाँ उसको तुरन्त खपाने में और जहाँ खादीका उत्पादन नहीं होता वहाँ उसका उत्पादन कराने में जुट जायें। यदि अमरेली के सब लोग एक एक कुरता बनाने योग्य खादी स्थानीय कार्यालयसे खरीद लें तो भी सारी खादी बिक जायेगी।

खादीका उपयोग क्या कम है? खादी के तौलिये बनते हैं, खादीके खोल, चादरें, बस्ते और थैले बनते हैं; खादीका उपयोग बच्चोंके पालनोंमें होता है, उसकी जाजमें बनती हैं। खादीकी बिक्री नहीं होती, जब मैं यह बात सुनता हूँ तब मुझे घीके बजाय चरबी खरीदने वाले लोगोंका उदाहरण याद आ जाता है। हिन्दुस्तानमें यदि घीका व्यवहार बन्द हो जाये तभी खादीका व्यवहार भी बन्द हो सकता है। खादीका उपयोग जबतक मुद्राके समान न हो तबतक यह कहा जा सकता है कि हम स्वराज्यका अर्थ नहीं समझे हैं।

कपास के दिन

ये कपास के दिन आ गये हैं। इसलिए एक पाठक स्मरण दिलाते हैं कि प्रत्येक व्यक्तिको, विशेषकर किसानोंको अपनी जरूरतकी कपास अवश्य इकट्ठी कर लेनी चाहिए। दूसरोंको खरीद लेनी चाहिए। प्रति व्यक्ति कमसे कम चार सेर कपास रखी जानी चाहिए। उसका प्रत्येक व्यक्तिको या तो सूत कात लेना चाहिए अथवा कतवा लेना चाहिए, यह उसके संग्रहका सबसे अच्छा मार्ग है। श्रीमन्त लोग होशियार बहनोंको बुलाकर अपनी पसन्दका महीन और बटदार सूत कतवा सकते हैं। हम इस तरह, अपने ही कतैये और बुनकर रखनेकी प्राचीन प्रथाको फिर आरम्भ कर सकते हैं।

पंच-पंचायत

गुजरातम पंचों और पंचायतों का रिवाज अभी चालू नहीं हुआ है। हम पंचों और पंचायतोंकी मार्फत अपने झगड़ोंको तय कराने के फायदोंको भूल गये हैं; मानो