पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

सात

ईश्वर है तो उसके दरबारमें इंग्लैंडवालोंको और भारतके शहरी लोगोंको इस बातके लिए जवाब देना पड़ेगा। मेरे खयालसे तो मानव-जातिके विरुद्ध किये गये इस अपराधकी शायद ही कोई मिसाल मिले। (पृष्ठ १२६) उन्होंने कहा कि यद्यपि किसी विशेष प्रशासकके प्रति मेरे मनमें कोई द्वेष-भाव नहीं है, किन्तु जिस सरकारने कुल मिलाकर भारतका इतना अहित किया है जितना कि पहलेके किसी भी तन्त्रने नहीं किया था, उसके प्रति अप्रीतिकी भावना रखना मैं श्रेयकी बात मानता हूँ। अन्तमें उन्होंने न्यायाधीशकी विवेक-बुद्धिसे अपील करते हुए कहा : "इसलिए, न्यायाधीश महोदय, अब आपके सामने यही एक रास्ता है कि जिस कानूनपर अमल करनेका काम आपको सौंपा गया है, उसे यदि आप अन्यायपूर्ण मानते हों और मुझे सचमुच निर्दोष समझते हों, तो आप अपना पद त्याग दें और इस प्रकार अन्यायमें शरीक होनेसे बचें। इसके विपरीत यदि आपका यह मत हो कि जिस तन्त्र और जिस कानूनको चलाने में आप मदद कर रहे हैं, वे इस देश की जनताके लिए हितकर हैं और इसलिए मेरी प्रवृत्तियाँ सार्वजनिक कल्याणके लिए हानिकारक हैं, तो आप मुझे कड़ीसे-कड़ी सजा दें।" (पृष्ठ १२८)

जेल में रहते हुए भी गांधीजीने विदेशी शासन-पद्धतिसे अपना युद्ध एक भिन्न स्तरपर जारी रखा। जेल जीवनके सामान्य नियमोंको तो उन्होंने खुशी-खुशी मान लिया, किन्तु हुक्कामोंके ऐसे हरएक कामका उन्होंने विरोध किया, जो कैदीकी हैसियतसे उनके अधिकारोंको आघात पहुँचाते थे अथवा जिनमें मानवीयताके विचारोंकी अवहेलना होती थी। यरवदा जेलसे हकीम अजमल खाँके नाम लिखी गई उनकी पहली ही चिट्ठी सरकारने रोक ली और विरोध में गांधीजोने अधिकारियोंको अपने इस निर्णयको सचना दी कि वे कैदीकी हैसियतसे प्राप्त पत्र लिखने के अपने अधिकारका उपयोग ही नहीं करेंगे। वे जिन पत्र-पत्रिकाओंको पढ़ना चाहते थे, उनका जेलमें मँगाया जाना भी अस्वीकृत कर दिया गया। गांधीजोने इस तरहके निर्णयोंके विषयमें जेलके सुपरिटेंडेंटको लिखा कि इन्हें “मैं न्यायाधीश द्वारा दी गई सजाके अतिरिक्त एक सजा मानता हूँ।" (पृष्ठ १७४) उन्होंने कहा : "सही हो या गलत, मेरी यह मान्यता है कि कैदीके नाते मेरे भी कुछ अधिकार है। . . . मैं कोई मेहरबानी नहीं चाहता। और यदि इन्सपेक्टर-जनरलको यह खयाल हो कि मुझे कोई भी चीज या सुविधा मेहरबानीके तौरपर दी गई है, तो मैं चाहता हूँ कि वह वापस ले ली जाये।" (पृष्ठ १७४) जेलमें जो लोग गांधीजीसे मिलने आते थे, उनको लेकर अधिकारियोंका व्यवहार गांधीजोको और भी अखरा। मिलने के लिए दी जानेवाली दरखास्तोंपर ठीक विचार नहीं किया जाता था जिसके फलस्वरूप गांधीजीको विरोध करना पड़ा : "...तो मुझे यह बात बता दी जानी चाहिए कि मैं किससे भेंट कर सकता हूँ और किससे नहीं ताकि निराशासे बचा जा सके और अपमानकी सम्भावनाको भी टाला जा सके।" और "प्रतिष्ठा और स्वाभिमानके विषयमें मेरे अपने कुछ विचार हैं; मैं चाहूँगा कि यदि हो सके तो सरकार उन्हें भी समझ ले और उनकी कद्र करे।" (पृष्ठ १७२) और "इसलिए मेरा आग्रह है कि सरकार इस पत्रका जल्दी, सीधासादा और कपटरहित उत्तर दे।" (पृष्ठ १७२)