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५१. पत्र : महादेव देसाईको

साबरमती जेल
मौनवार [१७ मार्च, १९२२][१]

चि॰ महादेव,

शायद बहुत दिनोंतक मेरा यह पत्र आखिरी पत्र ही रहे। तुम यही समझना कि तुम वहाँ सेवा कर रहे हो और मेरी सच्ची सेवा यहाँ शुरू हो रही है। मन, वचन और कर्मसे नियमोंके पालनका आग्रह रखूँगा और राग-द्वेष आदिको दूर करनेका भारी प्रयत्न करूँगा। और यदि मैं जेलमें सचमुच अधिक निर्मल होता गया तो उसका प्रभाव बाहर भी पड़े बिना न रहेगा। मेरी शान्तिकी तो आज भी सीमा नहीं रह गई है। पर जब सजा हो जायेगी और लोगोंका आना-जाना बन्द हो जायेगा तब शान्तिकी मात्रा और भी बढ़ जायेगी।

एक सवाल यहाँ उठ सकता है। यदि इस प्रकार अधिक सेवा हो सकती हो तो कहीं जंगलमें जाकर क्यों न बैठ जाना चाहिए? उसका जवाब सीधा है। जंगलमें जाकर बैठना एक प्रकारका मोह है; क्योंकि इसके मूलमें इच्छा है। क्षत्रियके लिए तो वही धर्म है जो अपने-आप सहज प्राप्त हो जाये। जेल में सहज ही प्राप्त होनेवाली शान्ति से फायदा हो सकता है। ईश्वरका कैसा चमत्कार है? बारडोलीमें पूरी तरह अपनी शुद्धि की, दिल्लीमें किसी प्रकारका मैल न चढ़ने दिया और फिर उसी बातको लोगोंको पसन्द आने लायक भाषामें प्रकट करके अपनी और अधिक शुद्धि की। क्योंकि दृढ़ताके साथ-साथ उसमें मैंने कोमलताका परिचय दिया। उसके बाद भी 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' द्वारा शुद्धि ही की। 'अहिंसा'[२] और 'ताण्डव'[३] शीर्षक लेख लिखे। इस प्रकार अधिकाधिक शुद्धिके समय, 'वैष्णव जन' गाते हुए गिरफ्तार होनेके लिए चला गया। यदि इसमें अच्छाई नहीं है तो किसमें हो सकती है?

अब तो मैं यह चाह रहा हूँ कि अब कोई जान-बूझकर जेलमें न आये।

अपने शिक्षक ख्वाजा साहब[४] और मित्र जोजेफ[५] तथा अन्य लोगोंके लिए इस पत्रका अनुवाद कर देना।

यह तो सपने में भी नहीं सोचा था कि शंकरलाल मेरे साथ पकड़े जायेंगे। परन्तु ईश्वर सब कुछ कर सकता है।

बापूके आशीर्वाद

मूल गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ ७९९७) की फोटो-नकलसे।
 
  1. पत्रपर यह तारीख महादेव देसाई द्वारा डाली गई है।
  2. देखिए पृष्ठ २३-२७ और ५७-५९।
  3. देखिए पृष्ठ २३-२७ और ५७-५९।
  4. ख्वाजा अब्दुल मजीद महादेव देसाईके साथ नैनी जेलमें थे और उन्हें उर्दू पढ़ाते थे।
  5. मदुराके जॉर्ज जोजेफ, महादेव देसाईके साथ इंडिपेंडेंट पत्रमें काम करते थे और इस समय उन्हीं के साथ नैनी जेलमें थे।