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पत्र : मणिलाल गांधीको

अच्छी तरह समझते हैं। यदि मैं आज भी बाके प्रति मोहित होकर विषय-सुखमें पड़ जाऊँ तो तत्काल गिर जाऊँगा। मेरा काम अधूरा रह जायेगा और एक व्यक्ति द्वारा स्वराज्य प्राप्त करने की अपनी शक्ति मैं एक क्षणमें खो बैठूँगा। बाके साथ मेरा आजका सम्बन्ध भाई और बहनका सम्बन्ध है और उसीके कारण मेरी शोभा है।

तुम्हें ऐसा बिलकुल नहीं सोचना चाहिए कि जब मैं भरपूर विलास कर चुका, तब यह विचार मुझे मिला। मैं तो केवल संसारको जिस रूपमें मैंने देखा है, उसी रूपमें तुम्हारे सामने चित्रित कर रहा हूँ। स्त्री-पुरुष संभोगसे अधिक घिनौनी किसी क्रियाकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। वह सन्तानोत्पत्तिका कारण बन जाती है, यह तो ईश्वरकी लीला है। किन्तु सन्तानोत्पत्ति कोई कर्त्तव्य है अथवा यदि सन्तानोत्पत्ति न हो तो जगत् की कोई हानि हो जायेगी, ऐसा मैं बिलकुल नहीं मानता। क्षण-भरके लिए मान लें कि उत्पत्ति मात्र बन्द हो गई, तो फिर सारा विनाश भी समाप्त हो जायेगा। जन्म-मरणके चक्करसे मुक्त हो जाना ही तो मोक्ष है। यही परम सुख माना गया है और यह बिलकुल उचित ही है।

यह तो मुझे दृष्टिगोचर होता ही रहता है कि शरीरके सारे सुख मलिन हैं। हमने इस मलिनताको ही सुख मान लिया है। ऐसी ही है ईश्वरकी गहन गति। किन्तु इस मोहसे निकल आने में ही हमारा पुरुषार्थ है।

यह सब लिख चुकने के बाद मैं तुम्हें स्वतन्त्र ही मानता हूँ। मैंने मित्र भावसे सलाह ही दी है। मैंने तुम्हें पिताकी हैसियतसे आज्ञा नहीं दी। मैं आदेश तो इतना ही देता हूँ कि "अच्छे बनो"! किन्तु करना तुम अपने विचारके अनुसार, मेरी इच्छाके अनुसार नहीं। यदि तुम बिना विवाहके नहीं रह सकते तो अवश्य विवाह करनेके विषय में सोचना।

तुम अपने हृदयके उद्गार विस्तार के साथ लिख भेजो।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्च :]

वहाँ मेरे लिखे हुए कागज, चिट्ठियाँ और कतरनें तथा किताबें आदि जो हों, वे सब यहाँ भेज दोगे तो अच्छा रहेगा। ऐसी किताबें भी जो तुम्हें वहाँ उपयोगी लगें, भेज देन।

मूल गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ १११६) से।
सौजन्य : सुशीलाबहन गांधी