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ऐतिहासिक मुकदमा

है कि सरकारके प्रति अप्रीतिकी भावना फैलाना असहयोगीका फर्ज है।[१] इसके बाद उन्होंने 'यंग इंडिया' में प्रकाशित श्री गांधीके लेखोंके कुछ अंश पढ़कर सुनाये।

न्यायाधीशने कहा कि फिर भी, मुझे तो यह बात बिलकुल स्पष्ट लगती है कि जब अदालत ने एक बार अभियुक्तोंको अपराध स्वीकृति मंजूर कर ली तो जिस सामग्री के आधारपर सजा तय की जानी है, वह है लगाये गये आरोप और उनपर अभियुक्तोंका कथन।

सर जे॰ टी॰ स्ट्रेंगमैनने कहा कि सजा देना तो अदालतके हाथकी बात है। अदालतको यह अधिकार है कि वह चाहे तो दण्डके निर्धारणमें उन खास बातों तक ही महदूद न रहे जिनके सम्बन्धमें अपराध सिद्ध हुआ है, बल्कि इस प्रश्नपर ज्यादा व्यापक ढंगसे विचार करे। मैं चाहता हूँ कि अदालत मुझे उन लेखोंका हवाला देकर यह दिखानेकी इजाजत दे कि यदि इस मामलेकी सुनवाई तथ्योंका पता लगानेके लिए की जाती तो उसका परिणाम क्या होता। में आपके समक्ष कोई भी विवादग्रस्त बात पेश नहीं करूँगा।

न्यायाधीश ने कहा कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है। सर जे॰ टी॰ स्ट्रेंगमनने कहा कि मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि ये लेख सन्दर्भ-विहीन चीजें नहीं हैं; बल्कि इनके पीछे बहुत-सी बातें हैं। ये असलमें एक सुसंगठित प्रचार-आन्दोलनके अंग हैं, किन्तु जहाँतक 'यंग इंडिया' का सम्बन्ध है, यह सिलसिला १९२१ से प्रारम्भ हुआ है। इसके बाद वकीलने ८ जून, १९२१ के अंकसे असहयोगीके कर्त्तव्योंपर प्रकाशित एक लेखके[२] कुछ अंश पढ़कर सुनाये, जिसमें कहा गया था कि वर्तमान सरकारके प्रति अप्रीति—की भावनाका प्रचार करना और देशको सविनय अवज्ञाके लिए तैयार करना असहयोगीका कर्त्तव्य है। उसी अंकमें सविनय अवज्ञापर भी एक लेख था।[३] किसी और अंक में "अराजभक्ति एक सद्गुण" या ऐसे ही किसी शीर्षकसे एक लेख था।[४] फिर २८ जुलाई, १९२१ के अंकके लेख में[५] यह कहा गया था कि "हमें इस प्रणालीको नष्ट करना है।" फिर वकीलने ३० सितम्बर, १९२१ के "पंजाबके मुकदमे" शीर्षक लेखका[६] हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि हर सच्चे असहयोगीको 'अप्रीति' का प्रचार करना चाहिए। इन लेखोंका हवाला देनेके बाद वकीलने कहा कि 'यंग इंडिया' में छपे लेखों के बारेमें मुझे इतना ही बताना था। ये लेख "राजभक्तिसे भ्रष्ट करनेका आरोप" शीर्षक लेखसे पहलेके हैं। इस लेखकी ओर बम्बईके गवर्नरका

  1. देखिए खण्ड २०, पृष्ठ १३८-३९।
  2. देखिए खण्ड २०, पृष्ठ १७८-१८७।
  3. देखिए खण्ड २०, पृष्ठ २३१-३२।
  4. देखिए खण्ड २०, पृष्ठ २२१-२२।
  5. देखिए खण्ड २०, पृष्ठ ४४९।
  6. वस्तुतः यह लेख १ सितम्बर, १९२१ को प्रकाशित हुआ था। देखिए खण्ड २१, पृष्ठ ३४।