पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/१६

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दस

उन्होंने कहा : "मेरे पास कोई नया कार्यक्रम नहीं है।. . .मैं भारतकी आजादीके लिए जी रहा हूँ और उसीके लिए मरूँगा, क्योंकि यह सत्यका ही अंग है। स्वतन्त्र भारत ही उस सच्चे ईश्वरकी पूजा करने के योग्य हो सकता है।. . . .परन्तु मेरी स्वदेशभक्ति मुझे दूसरे देशोंकी सेवासे विमुख नहीं करती। इसमें किसी दूसरे देशको हानि पहुँचानेको तो कोई बात ही नहीं है, बल्कि इसी में सभीके सच्चे लाभके लिए जगह है।" (पृष्ठ ३६३) उसी अंकमें "मेरा जीवन-कार्य" नामक एक दूसरे लेखमें उन्होंने कहा : "मैं अपने देशकी जो सेवा कर रहा हूँ, वह तो मेरी उस साधनाका एक अंग है जिसके द्वारा मैं पांच भौतिक देह-धारणसे अपनी आत्माको मुक्त करना चाहता हूँ। इस दृष्टि से मेरी देश-सेवा केवल स्वार्थ-साधना समझो जा सकती है। मुझे इस नाशवान ऐहिक राज्यकी कोई अभिलाषा नहीं है। मैं तो ईश्वरी राज्य— मोक्षको पानेका प्रयत्न कर रहा हूं।. . .इस प्रकार मेरी देशभक्ति और कुछ नहीं, अपनी चिर-मुक्ति और शान्ति-लोककी मंजिलका एक विश्राम-स्थान है। इससे यह मालूम हो जाता है कि मेरे समीप धर्म-शून्य राजनीति कोई वस्तु नहीं है। राजनीति धर्मकी अनुचरी है। धर्महीन राजनीतिको एक फाँसी ही समझा जाये, क्योंकि उससे आत्मा मर जाती है।" (पृष्ठ ३७३) और धर्मसे उनका अर्थ हिन्दू धर्म नहीं था, बल्कि "मेरा अभिप्राय उस धर्मसे है. . .जो मूलभूत सत्य है; जो संसारके समस्त धर्मोंका आधारस्वरूप है (पृष्ठ २१०)। पृष्ठ १५८-५९ पर सत्य और असत्यमें बताये गये भेद तथा पृष्ठ १६२ पर बोहमनको 'सुपर सेंसुअल लाइफ' से लिए गये उद्धरण और पृष्ठ ३८४ पर मोक्ष और स्वर्गसे सम्बन्धित टिप्पणियाँ इस बातको भली-भाँति व्यक्त कर देती हैं कि वे भीतरी और बाहरी, दोनों प्रकारके जीवनको स्वच्छ रखनेके प्रति कितने जागरूक थे और इन बातोंको लेकर कितना गहरा विचार करते थे।

एस्थर मेननको उसके विवाहके अवसरपर लिखते हुए (पृष्ठ २२-२३) उन्होंने पारिभाषिक शब्दावलीसे दूर रहकर परम्परागत हिन्दू धर्मके उस धार्मिक विचारका स्वरूप चित्रित किया है जो मोक्षका दाता है और जिसकी जड़ें कर्त्तव्यको भूमिमें हैं। सत्य और उसके उन विविध पहलओंके प्रति जो साधकके सामने उपस्थित होते हैं, उनकी श्रद्धा आजन्म उनकी सार्वजनिक जीवन की आधारशिला रही। ट्रान्सवालके किसी ईसाई सज्जनको पत्र लिखते हुए भी उन्होंने लगभग यही बात कही : "मुझे अपना कोई स्वार्थसाधन नहीं करना है और न मेरी ऐसी कोई सांसारिक महत्त्वाकांक्षा है जिसकी पूति करनी हो। ईश्वरका साक्षात्कार ही मेरे जीवनका एकमात्र उद्देश्य है, और मैं दुनियाको जितना ही अधिक देखता हूँ तथा उसके बारे में जितने अधिक अनुभव होते जाते हैं, उतना ही मैं महसूस करता हूँ कि इस प्रेरणाको ग्रहण करनेका तरीका जुदा-जुदा हुआ करता है। (पृष्ठ २८५)