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६२. पत्र : हकीम अजमल खाँको[१]

यरवदा जेल
१४ अप्रैल, १९२२

प्रिय हकीमजी,

कैदियों को इस बात की इजाजत है कि वे तीन महीने में एक बार बाहर के लोगों के साथ मुलाकात कर सकते हैं और एक पत्र लिख सकते हैं तथा एक प्राप्त कर सकते हैं। देवदास और राजगोपालाचारी मुझसे मुलाकात कर चुके हैं, और पत्र आपको लिख रहा हूँ।

आपको याद होगा कि श्री बैंकरको और मुझे १८ मार्चको शनिवारके दिन सजा सुनाई गई थी। सोमवार की रातको कोई १० बजे हमें यह नोटिस मिला कि हमें किसी अज्ञात स्थानपर ले जाया जायेगा। साढ़े ग्यारह बजे पुलिस सुपरिटेंडेंट हमें उस स्पेशल ट्रेनपर ले गये जो हमारे लिए साबरमती स्टेशनपर तैयार खड़ी थी। रास्ते के लिए एक टोकरी फल रख दिये गये और सफर-भर हमारा पूरा खयाल रखा गया। साबरमती जेलके डाक्टरने, मेरे स्वास्थ्य और धर्मका खयाल रखते हुए मुझे उसी भोजनकी अनुमति दे दी थी जिसका मैं अभ्यस्त हूँ। श्री बैंकरको चिकित्साकी दृष्टिसे रोटी, दूध और फलोंकी अनुमति भी दे दी गई थी। अतः डिप्टी सुपरिटेंडेंटने, जो हमें ले जा रहे थे, रास्तेमें श्री बैंकरके लिए गायके और मेरे लिए बकरी के दूधकी व्यवस्था कर दी।

खड़की स्टेशनपर हमें उतार लिया गया। वहाँ जेलकी गाड़ी हमें जेलतक पहुँचाने के लिए तैयार खड़ी थी। यह पत्र जेल पहुँचनेके बाद लिख रहा हूँ।

जो कैदी इस जेलमें रह चुके थे उनसे मैं इस जेलकी बुराइयाँ सुन चुका था इसलिए अपने मार्गमें आनेवाली कठिनाइयोंका सामना करने को तैयार था। श्री बैंकरसे मैंने कह दिया था कि यदि मुझे कातनेकी इजाजत नहीं मिली तो मुझे अनशन करना पड़ेगा, क्योंकि मैं हिन्दू नववर्ष दिवसपर व्रत ले चुका था कि बीमारी या सफर के दिन छोड़कर प्रतिदिन कमसे कम आध घंटे जरूर कातुँगा। मैंने उनसे यह भी कहा कि इसलिए यदि मुझे अनशन करना पड़े तो वे दुःखी न हों और किसी भी अवस्थामें मिथ्या सहानुभूति के कारण मेरे साथ उसमें शामिल न हों। वे मेरी बात समझ गये थे।

इसलिए जेल पहुँचनेपर शामको कोई साढ़े पाँच बजे जब सुपरिंटेंडेंटने मुझे यह बताया कि हमारे साथ जो चरखा है उसे और हमारे पास जो फल हैं उन्हें जेलमें साथ ले जानेकी इजाजत नहीं दी जा सकती तो इससे हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। मैंने

  1. जेल अधिकारियोंने इसे रोक लिया था। देखिए अगला शीर्षक।