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पत्र : श्रीमती मँडॉकको


(३) सादा जीवनकी और इसलिए उत्तेजक पेयों और दवाओंके त्यागकी हिमायत करना।

(४) सरकारी मददके बिना चलनेवाले राष्ट्रीय स्कूलोंकी स्थापना। इसका उद्देश्य असहयोग आन्दोलनके एक अंगके रूपमें विद्यार्थियोंको सरकारी संस्थाओंसे हटाने और राष्ट्रीय समस्याओंके अनुरूप ऐसी शिक्षाका श्रीगणेश करना है जिसमें औद्योगिक प्रशिक्षण शामिल हो।

(५) हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी और यहूदियों आदिमें एकता स्थापित करना।

मैं इन प्रवृत्तियोंको दो संस्थाओंके माध्यमसे चलाता हूँ। पहली संस्था अहमदाबादके समीप एक आश्रम है जिसकी स्थापना १९१६[१] में की गई थी। यहाँ उन सभी लोगोंको शरीक होने के लिए आमन्त्रित किया जाता है जो इन आदर्शोंको अमलमें लाना चाहते हों। उसका खर्च ऊपर बताई गई प्रवृत्तियों में दिलचस्पी रखने-वाले धनाढ्य मित्रोंके व्यक्तिगत दानसे पूरा किया जाता है। इस समय उसमें स्त्री-पुरुष दोनों मिलाकर लगभग १०० सदस्य हैं। इनमें कई तथाकथित अछूत परिवार भी शामिल हैं। वहाँ आश्रम से सम्बद्ध धुनने, कातने और बुननेका स्कूल और सामान्य पुस्तकीय ज्ञान देनेवाला स्कूल है। वहाँ साधारण कृषि कार्य भी किया जाता है; उसमें अपने उपयोगके लायक कपास स्वयं उपजानेकी कोशिश की जा रही है।

दूसरी संस्था राष्ट्रीय कांग्रेस है। यह एक विशाल राजनैतिक संस्था है जिसका संविधान बहुत ही सीधा-सादा, किन्तु मेरी रायमें परिपूर्ण है। ऊपर जो कार्यक्रम मैंने लिखा है इसने उसे लगभग पूरा ही अपना लिया है। भारत के हर हिस्से में इसकी शाखाएँ हैं और हजारों लोग इसके सदस्य हैं। ये लोग प्रतिवर्ष अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। चार आने चन्दा देनेसे और कांग्रेस के सिद्धान्तोंको स्वीकार करनेसे कोई भी वयस्क स्त्री-पुरुष कांग्रेसकी सदस्यताका और प्रतिनिधियों के चुनावमें मत देनेका अधिकारी हो जाता है। स्वभावतः कांग्रेसका कार्यक्रम ऊपर बताई गई प्रवृत्तियों अधिक है और चूंकि कांग्रेस एक प्रतिनिधि संस्था है, इसलिए उसका कार्यक्रम लचीला है; वह स्थायी नहीं है, कांग्रेस उसे साल-दर-साल बदल सकती है। उसका उद्देश्य शान्तिपूर्ण और वैध उपायों द्वारा स्वराज्य अर्थात् स्वायत्त शासन प्राप्त करना है। पिछले चार वर्षों से वह सरकारसे अहिंसात्मक असहयोग करके अपना लक्ष्य प्राप्त करनेकी कोशिश कर रही है।

मेरा अपना विचार यह है कि मैं भारतीय अर्थात् प्राचीन संस्कृतिको आधुनिक अर्थात् पश्चिमी सभ्यताके, जो भारतपर थोपी जा रही है, प्रहारसे नष्ट होनेसे बचाने-का प्रयत्न करूँ और उसमें अपनी पूरी शक्ति लगा दूँ। प्राचीन संस्कृतिका सार पूर्ण अहिंसा के आचरणमें आ जाता है। इसका प्रेरक सूत्र सबकी, जिसमें समस्त जीव आ जाते हैं, भलाई करना है, जब कि पश्चिमी संस्कृति डंकेकी चोट हिंसापर आधारित

  1. यह उल्लेख अहमदाबादके पास स्थित कोचरव सत्याग्रह आश्रमका है जिसकी स्थापना २० मई, १९१५ को की गई थी, न कि १९१६ में; जो १९१७ में प्लेग शुरू होनेपर साबरमती के जाया गया।