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१६७. मूल आपत्ति

अन्धेरी
१७ मार्च, १९२४

लाहौर में मैंने अपने डाक्टर (अब सर) जोजेफ न्यूननको[१] एक आलेख दिया था। उसपर मैंने लाहौर, १ फरवरी, १९२० लिखकर अपने दस्तखत किये थे। यह आलेख विदेशों में भारतीयों की स्थितिपर लिखे गये २२ नवम्बर, १९२३ के एक विस्तृत लेखमें उद्धृत किया गया है। चूँकि ब्रिटिश गियानामें भारतीयोंको बसानेकी एक तजवीजकी ताईद में इसका उपयोग किया गया है और लिखा गया है कि जहाँ-तक हमें मालूम है इससे ब्रिटिश गियानाके प्रति महात्मा गांधीका आज भी क्या रुख है, यह अभिव्यक्त होता है। मुझे अपनी स्थिति साफ कर देनी चाहिए। मैंने फरवरी १९२० में जो वक्तव्य दिया था उसे नीचे दे रहा हूँ :

लाहौर
१ फरवरी, १९२०
मैं आरम्भ में ही यह बिलकुल साफ कर देना चाहता हूँ कि ऐसी कोई कारवाई करनेका मेरा इरादा नहीं है जिसका अर्थ यह निकले कि में आगे बढ़कर भारतीयोंको भारत छोड़नेके लिए उत्साहित करता हूँ। में भारतीयोंके प्रवासी बन जानेके खिलाफ हूँ। साथ ही में यह भी जानता हूँ कि इस सम्बन्ध-में बहुत से लोगोंका भिन्न मत है। इसलिए मैं यह भी नहीं चाहता कि कानून-के द्वारा अथवा प्रशासनिक कार्यवाही करके भारतीयोंको भारतमें रहनेपर ही मजबूर किया जाये। स्वदेश तथा विदेशों में उनके साथ स्वतन्त्र नागरिक-जैसा बरताव किया जाना चाहिए और उनके बारेमें जो भ्रान्तियाँ फैलाई जाती हैं, उनसे उनकी रक्षा की जानी चाहिए। में नहीं जानता कि साम्राज्य प्रतिरक्षा विनियम (डिफेंस आफ दी रैल्म रेगुलेशन) के अतिरिक्त और कोई ऐसा कानून है। या नहीं जिसके द्वारा उन्हें भारत के बाहर जानेसे रोका जा सके। और उसकी मीयाद भी लड़ाई खत्म होनेके छः महीने बाद पूरी हो जायेगी। (इस विनियमके अनुसार लड़ाई खत्म होनेके छः महीने बादतक खास अथवा साधारण अनुमति-पत्रके बिना कोई भी अप्रशिक्षित मजदूर विदेश नहीं जा सकता)।
यदि एक बार मुझे यकीन दिला दिया जाये कि ब्रिटिश गियानामें भारतीयोंको राजनीतिक, स्वायत्त शासन सम्बन्धी कानूनी, व्यापारिक तथा औद्योगिक क्षेत्रों में समान अधिकार प्राप्त हैं और उनके साथ न केवल सरकार तथा
  1. ब्रिटिश गियानाके महान्यायवादी।