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मूल आपत्ति
आम लोग उचित व्यवहार करते हैं बल्कि समुचित व्यवहारके जारी रखे जाने-का आश्वासन भी दिया जा रहा है तो में ऐसी किसी तजवीजकी मुखालफत नहीं करूँगा जिसके जरिये भारतीय किसान परिवार ब्रिटिश गियाना में बसनेके लिए बेरोक-टोक भेजे जानेवाले हों।
यह तो ठीक है कि ब्रिटिश गियानाका संविधान उदार है और भारतीय वहाँकी धारा सभा तथा नगरपालिकाओंके सदस्य हो सकते हैं और वे होते भी हैं। यह भी सच है कि दूसरी जातियोंके साथ उन्हें समान हक हासिल हैं। और वहाँ उन्हें बसने के लिए जमीन लेनेका अवसर भी प्राप्त है। इसलिए में इस तजवीजकी आजमाइश कर देखनेके पक्षमें हूँ, किन्तु छः महीने के अन्तमें श्री एन्ड्रयूज या भारतीय लोकप्रिय नेताओंका कोई प्रतिनिधि उस तजवीजके अमल-पर रिपोर्ट पेश करे। ब्रिटिश गियानाके शिष्टमण्डलने इस बातको स्वीकार किया है कि भारत सरकार द्वारा नियुक्त किसी निरीक्षक अधिकारीके अतिरिक्त जनताका कोई प्रतिनिधि भी अपनी स्वतन्त्र रिपोर्ट दे सकता है; और उसने उसका सारा खर्च देना भी कबूल किया है।
मैं यह मानता हूँ कि भारत सरकार के जरिये उपनिवेश कार्यालय तथा ब्रिटिश गियानाको सरकार भारतीयों और भारतीय नेताओंको समान व्यवहार जारी रखनेके सभी आवश्यक आश्वासन दे सकती है[१]

इस वक्तव्यका उपयोग किसी भी तजवीजकी ताईदमें करना शायद ही उचित हो। इसका उपयोग तो केवल इस बात में हो सकता है कि श्री सी॰ एफ॰ एन्ड्रयूज या उन्हींकी श्रेणी के किसी व्यक्तिके निरीक्षणमें, जिसे कि उन्हीं के समान प्रवासी भारतीयोंकी स्थितिका ज्ञान हो, प्रयोगके तौरपर एक जहाज भेज दिया जाये। किन्तु मैं स्वीकार करता हूँ कि यदि भारतीयोंकी दृष्टिसे यह प्रयोग सफल साबित हो तो पूर्वोक्त वक्तव्य के अनुसार उचित संरक्षण मिलनेपर भारतवासियोंको वहाँ बसानेकी किसी तजवीजकी मैं मुखालफत न करनेको बाध्य हूँगा। पर यह बात सबको भली-भाँति मालूम है कि फरवरी १९२० के बाद अंग्रेजी शासन प्रणालीसे सम्बन्धित मेरे विचारोंमें आमूल परिवर्तन हो गया है। जब मैंने यह वक्तव्य दिया था तब अनेक कड़वे और प्रतिकूल अनुभवोंके होते हुए भी, इस शासन-प्रथासे मेरा विश्वास पूरी तरह उठा नहीं था। पर आज मेरा उस प्रणालीके अन्तर्गत अधिकारी या समर्थकके रूपमें काम करनेवाले लोगोंके मौखिक या लिखित वादोंपर विश्वास नहीं रह गया है। दक्षिण आफ्रिका, पूर्व आफ्रिका और फीजी के प्रवासी भारतीयोंका इतिहास उनके प्रति वचन भंगका इतिहास है। जब-जब भारतीयों और यूरोपीयोंके स्वार्थों में विरोध उत्पन्न हुआ तब-तब साम्राज्य सरकार और भारत सरकारने अपने कर्तव्यकी निन्दनीय अवहेलना की है। भारतीय निवासियोंके पहलेसे चले आ रहे हकोंकी बलि देनेके लिए पूर्व आफ्रिका के मुट्ठीभर यूरोपीय ब्रिटिश सरकारको मजबूर करनेमें प्रायः

  1. गांधीजीने इस प्रश्नके सम्बन्धमें सन् १९२० में विस्तारसे कहा था; देखिए खण्ड १७, १४ ६-८ और ९-१२