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१८४. पत्र : राजबहादुरको

पोस्ट अन्धेरी
२० मार्च, १९२४

प्रिय तरुण मित्र,

तुम्हारा पत्र मिला।

तुमने अपने पिता की आज्ञाका पालन नहीं किया यह निश्चित ही अशिष्टता हुई। उन्होंने तुम्हें जो करने को कहा था वह अपने-आपमें शुद्ध था और यदि तुम्हारी अन्तरात्माने उसे शुद्ध कहने की अनुमति न दी हो तो भी वह निश्चय ही अशुद्ध नहीं था। किन्तु तुम्हारे यह स्वीकार करनेपर कि तुमने भूल की है, पिताने तुम्हें जो दण्ड दिया वह आज्ञोल्लंघन के अनुपात में बहुत ही अधिक हुआ। पिताका अपने बच्चेके बुरे कामके कारण स्वयं अपनेको किसी चीज से वंचित करना एक तरहका दण्ड ही है। तुमने मेरे प्रति कोई अपराध नहीं किया, इसलिए मेरे क्षमा करनेका प्रश्न नहीं उठता। फिर भी तुमने अपने पिताको नरम बनने और अपनी शपथ वापस लेने के लिए अभि-प्रेरित किया, इसके लिए मैं तुम्हें अपनी तरफसे हजार बार माफ करता हूँ। यह पत्र उन्हें दिखाओ और मुझे लिखो कि उन्होंने तुम्हारा दिया हुआ या छुआ हुआ भोजन लेना शुरू कर दिया अथवा नहीं।

हृदयसे तुम्हारा,

श्रीयुत राजबहादुर
कक्षा ८, सेक्शन बी
सनातन धर्म हाईस्कूल
इटावा नगर

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ८५४६) की फोटो-नकल तथा सी॰ डब्ल्यू॰ ५१३१ से।