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पत्र : आर॰ बी॰ सप्रेको

से नहीं कह रहा हूँ कि इन बातोंसे प्रभावित होकर आप अनुकूल निर्णय ही करें। आपको यह निर्णय तो इन मकानोंको किरायेपर देनेकी शर्तोंके अनुसार ही करना चाहिये। किन्तु मैंने यह सब यहाँ यह बतानेके लिए कहा कि मुझे स्वर्गीय सोराबजी से सम्बन्धित प्रत्येक बातमें दिलचस्पी क्यों है। यदि मैं उनकी विधवा पत्नीको अपने साथ साबरमती में रहने के लिए तैयार कर सकता तो मैं आपको कष्ट न देता, किन्तु उनकी इच्छा है कि उनकी लड़कीको वैसी ही शिक्षा मिले जैसी आम तौरपर पारसी लड़कियोंको मिलती है और मैं उनकी इस इच्छाको भली-भाँति समझ सकता हूँ। इसकी व्यवस्था मेरे आश्रममें नहीं है। आश्रममें तो हम सिर्फ सूत कातने और कपड़ा बुननेवाले लोग ही तैयार करते हैं, और मानवीय दृष्टिकोणसे जहाँतक सम्भव है वहाँतक सदस्योंको ऐसा परिवेश देनेका प्रयत्न करते हैं, जिसमें उनके चरित्रका गठन हो सके। आश्रम में पुस्तकीय ज्ञानका स्थान गौण है।

हृदयसे आपका,

सर दिनशा माणेकजी पेटिट

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ८५९८) तथा सी॰ डब्ल्यू॰ ५१५७ से।
 

२३०. पत्र : आर॰ बी॰ सप्रेको

पोस्ट अन्धेरी
२७ मार्च, १९२४

प्रिय श्री सप्रे,

आपका ११ फरवरीका पत्र मिला। उसके लिए धन्यवाद।

आपने जिस तारका उल्लेख किया है, वह मुझे मिल गया था। इसके लिए आप और क्लब के अन्य सदस्य भी मेरा धन्यवाद स्वीकार करें। जर्मनीमें कितने भारतीय रहते हैं, उनका धन्धा क्या है और जर्मनों और इन भारतीय निवासियोंके सम्बन्ध कैसे हैं, इस सबके बारेमें यदि आप मुझे कुछ विवरण भेज सकें तो मैं अनुगृहीत हूँगा।

हृदयसे आपका,

श्री आर॰ बी॰ सप्रे
मन्त्री, भारतीय व्यापारी क्लब
लोकेनगिसरवाल २
हैम्बर्ग (जर्मनी)

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ८५९९) की फोटो-नकल तथा सी॰ डब्ल्यू॰ ५१५३ से।