पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/४१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

२५८. 'हिन्दी नवजीवन' के पाठकगण!

बृहस्पतिवार
फाल्गुन कृष्ण १४ [३ अप्रैल, १९२४]

मुझे हमेशा इस बातका दुःख रहा है कि मैं 'हिन्दी-नवजीवन' का सम्पादक रहते हुए भी उसमें कुछ लिखता नहीं हूँ। इसी कारण मैं अपनेको उसका सम्पादक होने के लायक भी नहीं मानता।

मैंने सम्पादकका पद केवल श्री जमनालालजी बजाजके प्रेमके वश होकर ही ग्रहण किया है। जबतक उसमें केवल गुजराती और अंग्रेजीका अनुवाद ही आता है, मुझे सन्तोष नहीं हो सकता। समय मिलनेपर अब 'हिन्दी नवजीवन' में भी कुछ-न-कुछ लिखनेकी मैं कोशिश करूँगा।

पर इस लेख लिखनेका कारण दूसरा है। मैं देखता हूँ कि 'हिन्दी नवजीवन' में नुकसान रहता है। एक समय उसके कोई १२,००० ग्राहक थे, आज १,४०० हैं। 'हिन्दी नवजीवन' के स्वावलम्बी होनेके लिए ४,००० ग्राहकोंकी आवश्यकता है। यदि इतने ग्राहक थोड़े समयमें न होंगे तो मेरा इरादा है कि 'हिन्दी नवजीवन' बन्द कर दिया जाये। मेरा हमेशा यह विचार रहा है, और जेलमें वह अधिक दृढ़ हो गया है कि जो अखबार स्वावलम्बी नहीं है और जिसको इश्तहारोंका सहारा लेना पड़ता है, उसको बन्द कर देना चाहिए। इसी नियमके मुताबिक यदि 'हिन्दी नवजीवन' स्वावलम्बी न हो सके तो मैं उसे बन्द कर देना मुनासिब समझता हूँ। यदि आप इसकी आवश्यकता समझते हों तो ग्राहक संख्या बढ़ानेका एक अच्छा उपाय यह है कि आप अपने मित्रोंको इसका ग्राहक बनानेकी कोशिश करें। आपको यह जानना उचित है कि मैंने 'यंग इंडिया' के लिए भी ऐसा ही इरादा जाहिर किया है। मेरे इस निश्चयका सबब आप केवल नैतिक या आध्यात्मिक समझें।

गुजराती 'नवजीवन' में 'हिन्दी नवजीवन' और 'यंग इंडिया' के नुकसानका बोझ उठानेपर भी फायदा रहा है। पाँच सालकी उम्र में (५०,०००) बचे हैं। वे सार्वजनिक कामोंमें, सूतचक्र—चरखा—और खादी-प्रचारमें खर्च किये जायेंगे। इसका ब्योरा आपको गुजरातीके अनुवादमें मिलेगा। यदि 'हिन्दी नवजीवन' में लाभ होगा तो वह दक्षिण-प्रान्तों में हिन्दी भाषाका प्रचार करनेमें व्यय किया जायेगा। मेरा विश्वास है कि ऐसी सादी हिन्दी के प्रचारकी, जिसे हिन्दू व मुसलमान भाई-बहन समझ सकें, दक्षिणमें बड़ी आवश्यकता है। आप यदि इस खयालको पसन्द करें तो 'हिन्दी नवजीवन' का प्रचार करने में यथाशक्ति परिश्रम करें।

आपका सेवक,
मोहनदास करमचन्द गांधी

हिन्दी नवजीवन, ६-४-१९२४