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धीरज रखें

सब-कुछ अपनी आँखोंसे न देखूँगा तबतक मुझे बहुत कम बातें मालूम हो पायेंगी। मैं इन लोगों से इस हदतक तो सहमत नहीं हूँ; परन्तु मैं उन्हें और उन तमाम लोगोंको, जो उन्हींकी-सी राय रखते हैं, अपनी तरफसे यकीन दिलाता हूँ कि मैं तबतक कोई बात अपनी जबानसे न निकालूँगा जबतक मैं गौरके साथ और प्रार्थनाका भाव मनमें रखकर इस प्रश्नपर विचार नहीं कर लूँगा। मेरे नजदीक स्वराज्य की प्राप्ति इस बात-पर निर्भर नहीं है कि ब्रिटेनका मन्त्रिमण्डल उसके सम्बन्ध में क्या कहता है और क्या सोचता है, बल्कि पूरी तरह इस जटिल समस्या के उचित सन्तोषजनक और स्थायी निपटारेपर निर्भर है। इसके बिना हमारे सामने चारों ओर अन्धकार ही समझिए; और इसके हल होनेपर स्वराज्य बायें हाथका खेल है।

अतएव जबतक इन बातोंपर विचार और सलाह-मशविरा हो रहा है तबतक जो इन महत्त्वपूर्ण विषयोंपर मेरी राय जाननेमें दिलचस्पी रखते हैं उन लोगोंसे मेरी प्रार्थना है कि वे रचनात्मक काममें जुटे रहें। उनका एक-एक गज सूत कातना और खादी बुनना स्वराज्यकी ओर एक-एक कदम आगे बढ़ना होगा। वे तमाम लोग जो कि अपने हिन्दू या मुसलमान भाईके सम्बन्धमें बुरे खयाल अपने दिलमें न आने देंगे, इस सवालको हल करने में मदद देंगे। वे तमाम लेखक और अखबार जो निन्दा और स्तुतिके शब्दों का इस्तेमाल करनेसे हाथ खींच लेंगे, बदनीयतीका इलजाम लगाना या लोकमतको उभाड़ना और भड़काना बन्द कर देंगे, वे इसके निपटारेका रास्ता निष्कंटक बनायेंगे। अभी कुछ दिन पूर्व 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने भारतीय भाषाओंके पत्रोंमें से कुछ उद्धरण प्रकाशित किये थे जिनमें कुछ लेखकोंकी मनोवृत्ति भली-भाँति प्रकट होती है। उनसे मालूम हो जाता है कि यह काम कैसे नहीं करना चाहिए। हम मान लें कि किसी हिन्दू या मुसलमानने बिना सोचे-समझे कुछ कह दिया है। जो अखबार-नवीस अपने देशका भला चाहते हैं उनका यह काम कतई नहीं है कि वे उसे तत्काल सर्वत्र फैला दें। इस तरहकी गम्भीर भूलोंको बढ़ा-चढ़ाकर प्रकाशित करना अपराध है। मैं निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि इन उद्धरणोंमें जो बातें दी गई हैं वे उन लोगोंने कही भी हैं या नहीं। तथापि हम सही बात ही छापें, अपनी जबान और कलमपर काबू रखें। इस बातकी आवश्यकता को सिद्ध करने के लिए हमें किसी व्यक्ति-का मतामत जानना जरूरी नहीं है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-४-१९२४