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पत्र : मोतीलाल नेहरूको

नष्ट कर डालना चाहते हैं तो फिर कन्या-विक्रय आदि कुरीतियोंके पीछे पड़ने से क्या लाभ? यह सवाल यहाँ अप्रासंगिक है। हमारे सुधारकका प्रश्न जाति-सम्बन्धी ही है। यदि कौटुम्बिक असहयोग ठीक माना जाये तो जबतक जातियाँ कायम हैं तबतक जाति-सम्बन्धी असहयोगकी बात भी ठीक माननी चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १३-४-१९२४
 

३३६. पत्र : मोतीलाल नेहरूको

जुहू
रविवार [ १३ अप्रैल, १९२४][१]

प्रिय मोतीलालजी,

साथ में मसविदेको संशोधित करके भेज रहा हूँ। यदि आपको तथा अन्य मित्रोंको यह स्वीकार हो तो आप जितनी जल्दी चाहें, मैं उसे प्रकाशित करा सकता हूँ।[२] मुझे तो लगता है कि प्रायोगिक कालावधि नियत करनेसे सम्बन्धित धारा हटा दी जानी चाहिए। परन्तु मैं उन सज्जनोंसे यह बात अवश्य कहूँगा कि मेरा इरादा कोकोनाडा के प्रस्तावको रद कराने के लिए प्रस्ताव पेश करनेका नहीं है। बात केवल इतनी है कि यह धारा जिस रूप में है, उस रूपमें उसके फलितार्थ मैं नहीं जानता। शेष संशोधनोंके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु मसविदेके अन्तमें मैंने जो दो वाक्य जोड़े हैं, उनकी ओर मैं आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। उनका अर्थ स्पष्ट है। ये दो वाक्य जोड़ने में मेरा उद्देश्य कलकी बातचीत के निष्कर्षोको इसमें किसी हद-तक शामिल करना है।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

अंग्रेजी पत्र (एस॰ एन॰ ८७१५) की फोटो-नकलसे।
  1. पहला मसविदा ११ अप्रैल, १९२४को तैयार किया गया था और उसके बाद जो रविवार पड़ता था, उसकी तारीख १३ अप्रैल थी।
  2. पं॰ मोतीलाल नेहरूने अपनी सम्मति एक बहुत लम्बी टिप्पणी में अंकित की थी; देखिए परिशिष्ट १४ (क)। उन्होंने गांधीजीके प्रथम मसविदेकी एक नकल चित्तरंजन दासको भी भेजी थी। श्री दासने १८ अप्रैलको उसकी प्राप्ति स्वीकार करते हुए लिखा था कि वे इस सम्बन्धमें गांधीजीसे बातचीत करनेको उत्सुक हैं। श्री दासने यह भी लिखा था कि गांधीजीसे जबतक बातचीत न हो जाये तबतक उस मसविदेका प्रकाशन स्थगित रखा जाये। देखिए परिशिष्ट १४ (ख)।

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