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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परन्तु यदि ऐसा अनुभव होने में विलम्ब हो तो वह अधीर न होगा और विश्वास रखेगा कि प्रेम-बीजसे अगणित प्रेम-फल ही उत्पन्न हो सकते हैं।

मेरे पास जो पत्र आया है, उसमें यह भी पूछा गया है कि यदि हमारा तपस्वी असहयोगी जाति-भोजनका त्याग करे तो क्या वह जातिके मित्र लोगोंके यहाँ भी भोजनका त्याग कर दे? बात तो ऐसी होगी कि उसका त्याग पत्र मिलते ही जातिके पंचोंको रोष आयेगा और वे उसे बिरादरीसे खारिज कर देंगे और जो कोई उससे रोटी-बेटीका व्यवहार करेगा या उसके घरका पानी भी पियेगा, वे उसे दण्ड देंगे। इस अवस्था में व्यक्तियोंके साथ भोजन व्यवहारका सवाल ही नहीं उठेगा। इस प्रकार यदि जाति बाहर करनेका दण्ड मिले तो संयमीका विशेष धर्म यह होगा कि वह खुले या छिपे तौरपर अपने जातिवाले मित्रोंके यहाँ न्योता मिलनेपर भी भोजन करने न जाये। हाँ, यदि कोई जातिवाला विचारपूर्वक असहयोग में शामिल हो तो वह उसे अवश्य स्वीकार करे; और ऐसा होनेकी सम्भावना भी है।

परन्तु आमतौरपर ऐसा कहा जा सकता है कि मित्रोंके साथ भोजन-व्यवहारके त्याग करनेका मौका ही नहीं आयेगा। फिर भी कल्पना कर लें कि ऐसा मौका आये तो उसका त्याग करनेकी आवश्यकता नहीं। हाँ, जो लोग कन्या-विक्रय करते हों, उनका निमन्त्रण तो वह हरगिज़ कबूल न करे

इससे हम इन नतीजोंपर पहुँचते हैं :

  1. असहयोगका अवलम्बन करने से पहले लोकमत तैयार करनेके लिए बहुत कार्य करना चाहिए।
  2. असहयोगी में यह शक्ति होनी चाहिए कि वह बिना रोष किये विरोधियोंके दुर्वचन सुन सके और दुर्व्यवहार बरदाश्त कर सके।
  3. असहयोग प्रेम-मूलक होना चाहिए।
  4. असहयोग आरम्भ करनेके बाद अपना असली मुकाम नहीं छोड़ना चाहिए।
  5. असहयोगीको कठोर संयमका पालन करना चाहिए।
  6. असहयोगीको अपने साधनपर पूरी श्रद्धा होनी चाहिए।
  7. असहयोगी फलके विषय में उदासीन रहे।
  8. असहयोगी के प्रत्येक कार्यमें विवेक, विचार और नम्रता होनी चाहिए।
  9. असहयोग करनेका अधिकार और धर्म सबको प्राप्त नहीं होता। अधिकारके बिना किया गया असहयोग व्यर्थ होता है।

कुछ लोगों या बहुतसे लोगोंको ऐसा लगेगा कि इन नियमोंका पालन करना असम्भव है। यह ठीक ही है। तीव्र संयमके बिना शुद्ध असहयोग असम्भव है। फिर प्रस्तुत प्रसंग में तो वह तपस्वी स्वयं ही कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है, स्वयं ही सेनापति है और स्वयं ही सिपाही है। यदि उसमें कमी रहेगी तो उसके भाग्य में निराशा ही लिखी समझनी चाहिए। अतः ऐसे स्वतन्त्र असहयोगीके लिए तो असहयोगका अनारम्भ ही बुद्धिमानीका प्रथम लक्षण है। परन्तु एक बार आरम्भ कर चुकनेपर चाहे देह-पात् हो जाये, परन्तु उस कार्यका त्याग नहीं किया जाना चाहिए।

दूसरा सवाल यह उठता है कि ऐसे संयमका पालन करके जाति-जैसी संकुचित संस्था में सुधार की कौन बड़ी जरूरत थी? कुछ लोग कहेंगे हम तो जाति-बन्धनको ही