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अध्यापक और वकील

उसे कारगर या सन्तोषजनक भी कहा जा सके। परन्तु इस बहिष्कारको इस लिहाजसे सफल कह सकते हैं कि सरकारी विद्यालयों और अदालतोंकी जो शान और धाक-धमक थी वह बहुत कुछ जाती रही है। लोग आज पहले की अपेक्षा स्वतन्त्र राष्ट्रीय पाठशालाओं और झगड़ोंको निबटानेके लिए पंचायतोंकी स्थापनाकी जरूरत ज्यादा मानने लगे हैं। वकीलों और सरकारी स्कूलोंके अध्यापकोंको पाँच साल पहले जो कृत्रिम प्रतिष्ठा प्राप्त थी, उसे वे अब बहुत-कुछ खो चुके हैं। यह कोई ऐसा-वैसा लाभ नहीं माना जा सकता। पर कहीं मेरे कहने का कोई गलत अर्थ न लगा बैठे। शिक्षकों, अध्यापकों और वकीलोंकी देश के लिए की गई कुर्बानी तथा उनकी देशभक्ति की कीमत में कम नहीं आँकता। दादाभाई और गोखले अध्यापक थे। फीरोजशाह मेहता और बदरुद्दीन तैयबजी वकील थे। परन्तु अपने इन कीर्तिशाली देशबन्धुओंका भी यह दावा करना कि समझदारी और पथप्रदर्शन करनेकी योग्यता सिर्फ उन्हींके पास है औरोंके पास नहीं, ठीक नहीं माना जायेगा। कतैयों, बुनकरों, किसानों, कारीगरों और व्यापारियों को देश के भाग्य निर्माणका उतना ही अधिकार है जितना कि कथित उच्च पेशोंमें पड़े हुए लोगों को है। चूँकि उच्च पेशेवाले ये लोग राजसत्ताके अंग ही थे, हम उनके रोबमें आ गये, और फलस्वरूप उस हदतक हम यह मानने लगे हैं कि केवल वे ही सरकार द्वारा हमारी आवश्यकताओंकी पूर्ति करा सकते हैं। उन्हें चाहिए तो यह था कि वे हमें यह सिखाते कि सरकार प्रजाकी बनाई हुई है और वह प्रजाकी इच्छा के अनुसार काम करनेका एक साधन मात्र है। इस शिष्टवर्गकी मिथ्या प्रतिष्ठा डगमगा गई है। और मेरा खयाल है कि अब उसका उभरना मुश्किल है।

राष्ट्रीय शालाएँ और पंचायतें उतनी नहीं फली फूलीं, जितना चाहिए था; परन्तु उसके अनेक कारण हैं। कुछ निवार्य थे और कुछको अनिवार्य कह सकते हैं। यह काम हमारे लिए बिलकुल नया था इसलिए हमें यह सूझ नहीं पड़ा कि इसे किस तरह करना चाहिए। अतएव जो कुछ हमारे हाथ लगा है उससे हम निराश नहीं हैं बल्कि हमें और अधिक प्रयत्न करना चाहिए तथा अधिक समझदारी के साथ। ऐसा करने से हमारी निष्फलताएँ सफलता की सीढ़ियोंमें बदल जायेंगी।

हम लोग देहातों में जाकर काम करनेसे घबराते हैं। हम शहरियों को देहातों में काम करना बहुत कठिन मालूम होता है। बहुतों के शरीर भी देहातोंका कठोर जीवन व्यतीत करने योग्य नहीं हैं। पर यदि हम जनताके लिए स्वराज्य स्थापित करना चाहते हों, एक दलके बदले दूसरे किसी दलका, जो शायद उससे भी अधिक बुरा निकले, राज्य स्थापित करना नहीं चाहते तो इस कठिनाईका मुकाबला हमें केवल साहसके साथ ही नहीं, जानको हथेलीपर रखकर करना होगा। आजतक हजारों देहाती हमें जीवित रखने के लिए मरे-खपे हैं। अब शायद उन्हें जीवित रखनेके लिए हमें मरना पड़े। दोनोंके मरनेमें अन्तर बुनियादी होगा। देहाती लोग अनजाने ही और अनिच्छासे मरे हैं। उनके विवशतापूर्ण बलिदानसे हमारी अवनति हुई है। अब यदि हम जान-बूझकर और इच्छापूर्वक मरेंगे तो हमारा यह बलिदान हमें और सारे राष्ट्रोंको ऊँचा उठायेगा। यदि हम चाहते हैं कि हम स्वतन्त्र और स्वाभिमानी राष्ट्र बनकर रहें तो हमें इस अनिवार्य बलिदानसे अपना कदम पीछे न हटाना चाहिए।