पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 23.pdf/५२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४८४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


असहयोगी वकीलोंकी कठिनाइयाँ इससे भी अधिक हैं। दुर्भाग्यवश उन्हें ऐसा कृत्रिम जीवन बिताने की आदत पड़ गई है जो इस देशके वातावरणसे बिलकुल मेल नहीं खाता। यदि कुछ वकील अथवा डाक्टर मुवक्किलों या मरीजोंसे १,०००) रु॰ रोज या १००) रु॰ रोज भी मेहनताने के रूपमें वसूल करें या उन्हें इतनी रकम मिले तो यह जुर्म ही ह। कोई यह कहकर इस जुर्मसे अपनेको बरी नहीं मान सकता कि इतनी फीस देनेवाले लोग अक्सर धनी ही होते हैं और यदि धनवानोंसे कुछ ज्यादा रुपये लेकर वकील उसका कुछ भाग लोकहितमें लगायें तो इसमें कोई हानि नहीं बल्कि लाभ ही है। यदि वकालत या वैद्यक करनेवाले लोग स्वार्थी न हों और यदि वे केवल अपनी आजीविका के लिए आवश्यक रकम ही लें तो धनवानों को भी अपना बजट बदलना पड़ेगा। पर आज तो ऐसा लगता है कि हम इस पाप चक्र में घूम रहे हैं।

यदि हमें स्वराज्य में नगर-जीवनको ग्राम-जीवन के अनुरूप बनाना हो तो नगर-जीवनका रंग-ढंग बदलना ही होगा। उसकी शुरुआत करनेका समय यही है। वकील आजकी तरह अपनेको एकदम असहाय क्यों मानते हैं? यदि वे पुनः वकालत न शुरू कर सकें तो क्या भूखों ही मरना पड़ेगा? क्या दूसरा कोई चारा नहीं? क्या एक सूझ-बूझवाले वकीलके लिए बुनाई अथवा दूसरा कोई बाइज्जत काम खोज लेना नामुमकिन है?

असहयोगी वकीलों और अध्यापकोंको सलाह देना मेरे लिए कठिन है। यदि वे बहिष्कार में श्रद्धा रखते हों तो इन तमाम कठिनाइयोंका सामना करके बहिष्कारको जारी रखना चाहिए। यदि उनकी श्रद्धा न हो तो वे अपने मनमें हीनताका कोई भी भाव लाये बिना अपने पुराने कामोंमें लग जा सकते हैं। कांग्रेसके प्रस्तावको मैं बन्धनकारक नहीं मानता। अतएव मैं यह नहीं मानता कि केवल इस कारण कि बहिष्कारका प्रस्ताव कायम है, सरकारी विद्यालयों और अदालतोंमें कोई भी अध्यापक अथवा वकील न जाये। मैं तो अब भी बहिष्कार जारी रखनेपर जोर देता हूँ; परन्तु वह विद्यालयों और अदालतोंको खाली करानेकी हलचल खड़ी करनेके रूपमें नहीं, (यह काम १९२०-२१ में किया जा चुका था या करना ही पड़ा था) बल्कि रचनात्मक प्रणालीपर जोर देकर, अर्थात् राष्ट्रीय पाठशालाओं और पंचायतोंको स्थापित करके और उन्हें लोकप्रिय बनाकर।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १७-४-१९२४