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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि वे परिषद्को ऐसी हर जरूरी सहायता देने को तैयार हैं जिससे वह अगले वर्ष किसी भी राज्यकी सीमामें अपनी बैठक कर सके। वे सिर्फ एक ही शर्त रखना चाहते हैं कि इस साल जो भी भाषण आदि हों उनमें पूरी शालीनता बरती जाये। अगले वर्ष के लिए वे इस तरहकी कोई शर्त नहीं रखना चाहते। उन्हें भरोसा है कि परिषद् स्वयं ही अपनी मर्यादा और शिष्टाचारके नियमोंका पालन करेगी।

परिस्थितिको कुल मिलाकर देखनेपर तो मैं यही मानता हूँ कि स्वागत समितिको इस वर्ष भावनगरमें परिषद् बुलाने का आग्रह नहीं करना चाहिए। समिति के सदस्योंको पट्टणी साहब से सहमत होना चाहिए और सत्याग्रहियोंके रूपमें अपनी पूरी योग्यताका परिचय देते हुए परिषद् में पूरी शालीनता बरतनी चाहिए। ऐसा करने में लोगोंके लिए अपमानकी कोई भी बात नहीं है। सत्याग्रहका तेज इससे कम नहीं होगा और अगले वर्ष के लिए रास्ता साफ हो जायेगा। और मान लीजिए कि सब कुछ हमारी आशाके विपरीत ही होता है, मान लीजिए कि पट्टणी साहब अपना वायदा तोड़ देते हैं या उस अवसरपर काठियावाड़से बाहर रहते हैं, अथवा वे सभी सम्भव प्रयत्न करने के बाद भी किसी राज्यमें परिषद्की बैठक नहीं करा पाते तब भी इन सब सत्याग्रहियोंका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। सच्चा सत्याग्रही उचित नियम विधानके पालनसे थकता नहीं है। खोये हुए अवसरोंके लिए उसे कभी पछताना नहीं पड़ता। समय आनेपर वह पूरी तरह तैयार रहता है।

[अंग्रेजीसे]
बॉम्बे क्रॉनिकल, ८-५-१९२४
 

३८८. त्यागकी मूर्ति[१]

विधाताने हिन्दू-विधवाकी सृष्टि करने में अपना पूरा कौशल लगा दिया है। मैं जब-जब पुरुषोंको अपने दुःखकी कथा कहते हुए सुनता हूँ तब-तब विधवा बहनोंकी प्रतिमा मेरे सामने खड़ी हो जाती है और मुझे उस पुरुषपर जो अपने दुःखोंका रोना रोता है, देखकर मुझे हँसी आ जाती है।

हिन्दू धर्मने संयमको उच्चतम कोटिपर पहुँचाया है और वैधव्य उसकी परिसीमा है। पुरुष तो अपने दुःखको दूर कर लेता है। उसके दुःखका कारण उसकी मूर्खता ही होती है। वह बहुत-सा दुःख तो केवल धन-लोभके कारण भोगता है। परन्तु विधवा बारेमें क्या कहें? उस बेचारीका तो अपने दुःखमें हाथ ही नहीं है। उसके दुःखकी निवृत्तिका उपाय उसके पास है ही नहीं, क्योंकि रूढ़ि-धर्मने उसका द्वार बन्द कर रखा है। अनेक विधवाएँ दुःखको दुःख नहीं मानतीं। उनके लिए त्याग एक स्वाभाविक चीज हो गई है। त्यागका ही त्याग उसे दुःख-रूप मालूम होता है। विधवाका दुःख ही उसके लिए सुख माना गया है।

  1. देखिए खण्ड १७, पृष्ठ ४३३ तथा ४६३।