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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

धोने की क्रिया है। एक ही ईश्वरके इस जगत् में किसी भी मानवप्राणीसे सर्वदा असहयोग नहीं किया जा सकता। यह विचार कल्पनाके बाहर है, क्योंकि यह कल्पना ईश्वरके स्वामित्वके विरुद्ध है। इसलिए मैं वीसनगरके हिन्दुओंसे प्रार्थना करता हूँ कि वे वल्लभभाई तथा अब्बास साहबको बुलायें और उनसे कहें कि वे उनका झगड़ा तय करा दें। यदि उन्हें इन असहयोगियोंका विश्वास न हो तो वे भले ही सहयोगियोंको बुला लें। गुजरात में बहुतसे ऐसे सहयोगी हिन्दू और मुसलमान हैं जो उन्हें मदद देंगे। जबतक वीसनगरके हिन्दू समझौते के तमाम उपाय न आजमा लें तबतक उन्हें असहयोग करनेका अधिकार नहीं प्राप्त होता।

यह तो हिन्दू भाइयोंके लिए हुआ।

मुसलमान भाइयोंने गहरी भूल की है। मुस्लिम इतिहास कहता है कि इस्लामकी उज्ज्वलता तलवारके जोरपर कायम नहीं रही है। इस्लामकी तलवारने इस्लामकी रक्षा भले ही की हो, परन्तु न्याय और अन्यायका फैसला इस्लामने तलवारसे नहीं किया है। आजतक जगत् में कोई धर्म महज तलवारसे जीवित नहीं रह पाया है। चाहे जब तलवार खींच लेने की आदत ही खराब है; वह धर्मका नाश करनेवाली है। मैं विधर्मी होते हुए भी यह बात वीसनगर के मुसलमानोंसे अवश्य कहना चाहता हूँ। इस्लाम के नामको उज्ज्वल किया है उसके फकीरों, सूफियों और तत्त्वज्ञानियोंने। उन्होंने अपनी या अपने मजहबकी रक्षा तलवारके बलपर नहीं बल्कि अपनी रूहानी ताकत से की है। इस्लामका इतिहास यही साबित करता है।

वीसनगरके मुसलमानोंको चाहिए कि वे अपनी तलवारें म्यानमें रख लें। वे तलवारके बलसे हिन्दुओंको मस्जिदके पास बाजे बजाने से नहीं रोक सकते। हिन्दू तीस-चालीस वर्ष से बाजे बजाते आये हैं। उन्हें एकाएक बाजे बजानेसे रोकना कठिन है। यह काम तलवारसे नहीं किया जा सकता। दुनियाका यह कायदा है कि जैसा हमको लगता है वैसा ही दूसरोंको लगता है। यदि हिन्दू मुसलमानोंसे जबरदस्ती कोई हक माँगेंगे तो वे नहीं देंगे। उसी प्रकार मुसलमान भी हिन्दुओंसे जबरदस्ती कुछ नहीं ले सकते। वीसनगर के मुसलमान भाइयों को इस बातपर शान्त चित्तसे विचार करना चाहिए।

मैं यह नहीं कहता कि चूँकि हिन्दू चालीस वर्ष से बाजे बजाते आ रहे हैं, इसलिए उनका ऐसा करना भूल हो तो भी बाजे बन्द नहीं किये जा सकते। कोई बेजा बात बहुत कालसे होती चली आने से जा नहीं हो सकती। और बेजा बात तलवारके बलसे सुधारी नहीं जा सकती। उसका तो एक ही तरीका है—मेलजोल, समझौता। यदि वीसनगरके हिन्दुओंकी कोई भूल हो तो वह उन्हें बतानी चाहिए। उन्हें समझाया बुझाया जा सकता है। यदि वे न समझें और बाजे बजाते हुए ही जायें तो इससे मुसलमानोंकी नमाज व्यर्थ न हो जायेगी। नमाजका व्यर्थ जाना या सफल होना यह नमाजीके दिलपर निर्भर है। मैंने पढ़ा है कि पैगम्बर साहब जब लड़ाई चल रही हो, तलवारें खनक रही हों, घोड़े हिनहिना रहे हों और तीर सनसन चल रहे हों, तब भी शान्त चित्तसे एकाग्र होकर नमाज पढ़ सकते थे। उन्होंने मक्का के बुतपरस्तोंके दिल प्रेमके बलसे जीते थे।