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हिन्दू और मुसलमान


पैगम्बर साहब जो उदाहरण छोड़ गये हैं उसे वीसनगरके मुसलमान क्यों भूलते जाते हैं? नमाज पढ़ना उनका फर्ज है, यह तो 'कुरान शरीफ' में पढ़ा है। परन्तु मैंने यह कहीं नहीं पढ़ा और न सुना है कि यदि दूसरे लोग बाजे बजाते हों तो उन्हें उनको जबरन बन्द करा देनेका हक है और बन्द करा देना उनका फर्ज है। वे हिन्दुओं से प्रेमपूर्वक प्रार्थना कर सकते हैं। यदि हिन्दू न मानते हों तो वे वीसनगरके बाहरके हिन्दुओं और मुसलमानोंकी सहायता ले सकते हैं। मेलजोल और समझौते के सिवा न तो हिन्दुओंके लिए कोई रास्ता है और न मुसलमानोंके लिए ही।

क्या वीसनगर के मुसलमान स्वराज्य नहीं चाहते? क्या उन्हें गुलामी ही पसन्द है? क्या मुसलमान खिलाफत के प्रति अपना फर्ज अदा कर चुके? क्या गुलामी में रहनेवाले मुसलमान खिलाफतकी सच्ची सेवा कर सकते हैं? क्या मुसलमान हिन्दुओंसे पक्की दिली-दोस्ती किये बिना खिलाफतको रोशनी दे सकेंगे? अच्छा, यह मान भी लें कि खिलाफतका सवाल उनके सामने नहीं है; फिर भी क्या वे अपने वतन हिन्दुस्तान में अपने हमवतन हिन्दुओं के साथ हमेशा दुश्मनीके ही नाते रहना चाहते हैं? हम हिन्दुओं और मुसलमानोंके सम्बन्धमें दूसरे कितने ही सवालोंका 'नवजीवन' में विचार करेंगे। परन्तु एक बातका निश्चय तो तुरन्त किया जाना चाहिए। आपसी झगड़ोंका फैसला या तो पंचकी मार्फत या अदालतकी मार्फत ही कराया जा सकता है। हमें धर्मोंके अथवा दूसरी किसी चीजके नामपर एक दूसरेपर तलवार चलाना हराम समझना चाहिए। जिस प्रकार मुसलमानोंसे हमेशा डरते रहना, हिन्दुओंको शोभा नहीं देता उसी प्रकार हिन्दुओंको डराते रहना मुसलमानोंको भी शोभा नहीं देता। डरानेवाला और डरनेवाला दोनों भूल करते हैं। दोमेंसे किसका दर्जा बड़ा है यह मैं नहीं कह सकता। परन्तु यदि मुझे किसी एकको पसन्द करना ही पड़े तो मैं जरूर डरनेवालों के झुण्डमें जा बैठूँगा और डरानेवाले से पूरा-पूरा असह्योग करूँगा। मुझे निश्चय है कि डरनेवाले पर तो खुदा रहम करेगा और डराने वाले को उसके अहंकारके कारण अपने पास खड़ा न होने देगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ४–५–१९२४