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परिशिष्ट

यह आवश्यक है कि इस तन्त्र में और वह जिनके नियन्त्रणमें है उन लोगोंमें मेरा विश्वास हो। यह नहीं हो सकता कि मैं इस तन्त्रका पुर्जा बना रहूँ और उसको नष्ट भी करना चाहूँ। मेरा निवेदन है कि इस तर्क में वैसी ही कमजोरी है जैसी उपमाओं और रूपकोका सहारा लेकर दिये गये सब तर्कोंमें होती है। मेरी समझमें नही आता कि यह तन्त्र जिन लोगोंके नियन्त्रण में है उनमें विश्वास होना क्यों आवश्यक है, जब कि दूसरे लोग इस तन्त्रको उनकी अपेक्षा अधिक अच्छी तरह चला सकते हैं। मेरा खयाल तो यह है कि अच्छेसे अच्छा और निर्दोष तन्त्र भी इतनी बुरी तरहसे चलाया जा सकता है कि चलानेवालों को तुरन्त हटानेकी जरूरत पड़ जाये। यदि एक कमजोर पुराने तन्त्रको ऐसे चालकोंके हाथसे ले लिया जाये जो खराबी करनेपर तुले हुए हों और जरूरी मरम्मत के बाद उन लोगोंके फायदे के लिए चलाया जाये जिनके फायदेके लिए वह है तो इससे कोई हानि नहीं हो सकती। हम इस तन्त्रको नष्ट करने के लिए उसके पुर्जें नहीं बने। इसके कुछ बाहरसे मँगाये हुए पुर्जें ऐसे हैं जो माल बनाते वक्त मालको बरबाद कर देते हैं। हम फिलहाल इन्हीं पुर्जोंको इस तन्त्र में से निकाल रहे हैं और उनकी जगह खुद ले रहे हैं। हम आशा करते हैं कि हम अन्तमें एक नया और पूर्णतः स्वदेशी तन्त्र खड़ा कर लेंगे जिसे लोग अपने लाभ के लिए स्वयं चलायेंगे।

अब मैं मसविदेके उस हिस्सेपर आता हूँ जिसमें महात्माजीने कौंसिल- प्रवेशको अन्तिम तथ्य मानकर इस प्रश्नका उत्तर दिया है; अब क्या किया जाना चाहिए? "जैसा कि अपेक्षित था, उन्होंने इसका उत्तर केवल वही दिया है जो कांग्रेसके दिल्ली और कोकोनाडा अधिवेशनों में स्वीकृत प्रस्तावों के अन्तर्गत दिया जा सकता है। किन्तु मेरा खयाल है कि उन प्रस्तावोंकी कोरी व्याख्या पर्याप्त नहीं है, उससे कुछ अधिक करना आवश्यक है। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि कांग्रेसके साधारण आन्दोलन में स्वराज्यवादियों की स्थिति क्या होगी। क्या वह कुछ-कुछ ऐसी ही होगी जैसी महात्माजीने वकालत करनेवाले उन वकीलोंके लिए निश्चित की है, जिसकी तुलना उन्होंने जूते गाँठनेवाले चमारोंसे की है और जिनको कांग्रेसकी बातचीत में सक्रिय भाग लेने और कार्यकारिणी समितियोंके सदस्य बनने से रोक दिया है। यदि योजना ऐसी हो तो स्वराज्यवादियोंको महात्माजी के सम्मानजनक नेतृत्वसे अलग ही होना पड़ेगा और या सार्वजनिक जीवनसे अवकाश ग्रहण करना पड़ेगा या अपने लिए सेवाका कोई "नया ही मार्ग और नया ही साधन" ढूँढ़ना पड़ेगा। किन्तु यदि योजना ऐसी न हो तो मैं मानता हूँ कि एक संयुक्त उद्देश्यके लिए मिलकर काम करना अब भी सम्भव है। इस सम्बन्ध में मेरे खयालमें कुछ प्रस्ताव आये हैं और मुझे वे जिस क्रममें उपयुक्त लगे हैं, मैं उन्हें यहाँ उसी क्रम में देता हूँ।

१. कांग्रेस कौंसिलोंमें काम करनेका एक नया कार्यक्रम बनाये जिसका उद्देश्य "रचनात्मक कार्य" और "असहयोग" की दिशा में किये जानेवाले कांग्रेसके बाहरी कार्यों में सहायता देना हो। इस प्रकार बनाया गया कार्यक्रम देशके लिए नये निर्देशके समान होगा और सभी स्वराज्यवादी उसपर अमल करनेके लिए और सभी कांग्रेसी उसका समर्थन करने के लिए बाध्य होगे। उस अवस्थामे स्वराज्यवादियों और अस्व-