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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रहना था तब तो बात ही खत्म हो जाती है। यह कहा गया है कि "कौंसिलोंके वातावरण में सत्य और अहिंसाको त्यागनेका लोभ सदा बना रहता है और वह लगभग दुर्दम्य होता है।" इस सम्बन्ध में मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि मुझे कौंसिलों के वातावरण में और बाहरके वातावरण में कोई अन्तर नहीं दिखाई दिया है। कौंसिलोंमें प्रवेश से अनुशासनपर पड़नेवाला भार निश्चय ही सविनय अवज्ञाकी लम्बी प्रतीक्षाके भारसे कम होगा।

(ङ) "खिलाफत और पंजाब के कारण"। ये कारण अब लगभग समाप्त हो चुके हैं, इस बातको छोड़ दें तो भी मेरी समझमें यह नहीं आता कि इन प्रश्नों और कौंसिल-प्रवेश के प्रश्नमें क्या विशेष सम्बन्ध है।

महात्माजीने कौंसिलों में कांग्रेसजनोंके प्रवेशके विरुद्ध ऊपर दिये हुए मुख्य कारण बताये हैं। मुख्य कारणोंके बाद अपने सामान्य वक्तव्य में उन्होंने प्रसंगवश कुछ दूसरे मुद्दे भी बताये हैं। महात्माजीने स्वीकार किया है कि स्वराज्यवादियोंकी बहुत अच्छी जीत हुई हैं; किन्तु उसके बाद कहा है कि स्वराज्यवादियोंने जो कुछ किया है वह तो "असहयोगसे पहले" भी किया जा सकता था, और हम "एक गांधीको ही नहीं, बल्कि कई हसरत मोहानियों और पंजाबके समस्त कैदियोंको" "न्यायपूर्ण आन्दोलन करके" रिहा करा सकते थे और खद्दरका जो प्रदर्शन किया जा सका है या कौंसिलों में इतने नरमदलियोंका प्रवेश रोका जा सका है वह भी कोई बड़ी बात नहीं है।" "सरकारी तन्त्र तो नरमदलियोंके सहयोग से या उसके बिना भी और अवरोध किये जानेपर भी अबाध रूपसे चल रहा है।" इस प्रकारके तर्क महात्माजी के अनुरूप नहीं हैं। स्वराज्यवादियोंने महात्माजीकी रिहाईका या खादी के प्रदर्शनका श्रेय कभी नहीं लिया है; किन्तु उन्होंने नरमदलियोंको अवश्य ही कौंसिलोंमें जानेसे रोका है। यह कार्य महात्माजी के कार्यक्रमके अन्तर्गत कौंसिलोंके बहिष्कारसे सम्पन्न नहीं किया जा सकता था। मैं मानता हूँ कि सरकारका असली तन्त्र अबाध रूपसे चल रहा है। किन्तु हमारा कहना यह है कि हमने इस तन्त्र में से नकली और दिखावटी पुर्जोंको निकाल लिया है और उसका नंगा रूप संसारके सामने रख दिया है। यदि ३०,००० कार्यकर्त्ताओंको केवल यह साबित करने के लिए जेल भेजना ठीक था कि युवराजका आगमन असन्तुष्ट लोगोंपर जबरदस्ती लादा गया है तो लोक प्रतिनिधियोंके नामसे सरकार जिस धोखेको कायम रख रही है उसकी कलई खोलना भी निश्चय ही कुछ कम महत्त्वका काम नहीं था।

सबसे अधिक क्रूर प्रहार इस वाक्य में किया गया है, "यह आशा नहीं करनी चाहिए कि स्वराज्यवादियोंका समाधान किसी तर्कसे किया जा सकता है।" मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि स्वराज्यवादी अत्यन्त नम्रतापूर्वक अपने लिए स्वयं निर्णय करनेका अधिकार माँगते हैं और अभीतक कोई ऐसी बात नहीं कही गई है जिससे उनका समाधान हो सके।

महात्माजीने इसके बाद ऐसी एक-दो बातें और कही हैं जिनका उल्लेख करना आवश्यक है। उन्होंने कहा है, "मैं तो कौंसिलोंमें तभी जाना चाहता हूँ जब मुझे यह विश्वास हो सके कि मैं उनका उपयोग देशकी उन्नतिके लिए कर सकूँगा। इसलिए