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टिप्पणियाँ

न उन्हें इस बातमें ही विश्वास है कि सच्चे कार्यकर्त्ता ऐसा वातावरण पैदा कर सकते हैं जो वस्तुतः अहिंसात्मक हो। इसलिए आवश्यकता इस बातकी है कि हम मन, वचन और कर्ममें अधिकाधिक अहिंसावादी बनें।

जहाँतक जनताका सवाल है, मुझे इसमें सन्देह नहीं कि वह इस शुद्धिकारक आघातको सहन कर ले जायेगी। आजके इस निरुत्साहको मैं क्रमशः होनेवाली निश्चित प्रगतिकी की भूमिका मानता है। और यदि ऐसा न भी हो, तो भी बारडोलीके निर्णयके औचित्यसे इनकार नहीं किया जा सकता। यह औचित्य जनताको स्वीकृतिपर निर्भर नहीं है। ईश्वर है, चाहे सारी दुनिया उसे अस्वीकार करती रहे। सत्य कायम रहता है, भले ही उसे जनताका समर्थन न मिले। सत्य आत्मनिर्भर होता है।

जिम्मेदार मुसलमान यदि अहिंसाके सहज परिणामोंको, जो स्पष्ट हैं, नहीं देखेंगे तो मुझे निश्चय ही दुःख होगा। मेरे विचारमें यह लड़ाई जिस हदतक धार्मिक मुसलमानोंके लिए है उसी हदतक हिन्दुओंके लिए भी है। मैं यह मानता हूँ कि हमारा जिहाद एक आध्यात्मिक जिहाद है। लेकिन दूसरे सब युद्धोंकी भाँति जिहादकी भी अपनी कड़ी पाबन्दियाँ और सीमाएँ होती हैं। हिन्दू और मुसलमान एक ही नावपर सवार है। असन्तोष दोनोंको है, और दोनों एक-दूसरेके साथ भागीदारी खतम करनेके लिए स्वतन्त्र हैं। दोनों या उनमें से कोई एक मुझे सेनापतिके पदसे भी हटा सकता है। यह पारस्परिक सहयोग सर्वथा स्वेच्छापर निर्भर है। अन्तमें, मैं पत्रलेखकको यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि जिस दिन मुझे यह पता चल जायेगा कि मैं लोगोंके मनमें अपनी बात नहीं बैठा सकता, उसी दिन में अपने-आप नेतृत्व छोड़ दूँगा।

अन्य उलझनें

पाठकोंको अहिंसापर इस सप्ताहका अग्रलेख[१] पढ़ना चाहिए। मुख्य सिद्धान्तोंके विवेचनमें ही लेख काफी लम्बा हो गया है। इसीलिए मैंने महत्त्वपूर्ण प्रासंगिक विषयोंपर यहाँ विचार न करके उन्हें टिप्पणियों के लिए छोड़ दिया था।

उदाहरणके लिए हमारे आगे निम्नलिखित प्रश्न हैं :

  1. व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा पुनः कब शुरू की जा सकती है?
  2. किस तरहकी हिंसासे सविनय अवज्ञा समाप्त हो जायेगी?
  3. अहिंसाकी सीमित धारणामें क्या आत्म-रक्षाके लिए कोई स्थान है?
  4. मान लीजिए मुसलमान या हिन्दू आन्दोलनसे हाथ खींच लेते है, तो क्या एक ही सम्प्रदाय अहिंसात्मक आन्दोलन चला सकता है?
  5. मान लीजिए हिन्दू और मुसलमान दोनों मुझे छोड़ देते हैं, तो अहिंसाके मेरे प्रचारका क्या होगा?

मैं इन प्रश्नोंको क्रमसे लेता हूँ। सविनय अवज्ञाके लिए, यहाँतक कि व्यक्तिगत सविनय अवज्ञातक के लिए वातावरण शान्तिमय चाहिए। वह तबतक शुरू नहीं की

  1. देखिए "अहिंसा", ९–३–१९२२।