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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
इसके अलावा, मैंने जिम्मेदार मुसलमानोंको हिन्दुओंतक से सहयोग बन्द कर देनेकी बातें करते सुना है। उनके लिए यह लड़ाई धार्मिक है, बल्कि कहना चाहिए कि जिहाद है। जिहाद खुदाका और पैगम्बरका फरमान है। इसे शुरू करना और जब जी चाहे रोक देना कोई मजाक नहीं है। वे कहते हैं कि अगर हिन्दू अलग हट जाते हैं तो हमें खुद अपना रास्ता निकालना चाहिए। इसे लेकर मेरा मन बेचैन है। क्या आप मेरी बेचैनी दूर करनेका कष्ट करेंगे?

पत्र-लेखकके प्रति सहानुभूति हुए बिना नहीं रह सकती। यह पत्र उसी मनोवृत्तिका द्योतक है जिसके दर्शन मुझे दिल्लीमें हुए थे। मैं यह तो पहले ही साफ-साफ बता चुका हूँ कि पण्डित मालवीयजीका बारडोलीके फैसलेसे कोई सम्बन्ध नहीं है। और न इसका अहिंसाकी किसी क्लिष्ट कल्पनासे ही कोई सरोकार है। लेखकका पत्र इस निर्णयका पूर्ण औचित्य सिद्ध कर देता है। मेरे निकट बारडोलीका फैसला सीमित अहिंसाकी राष्ट्रीय प्रतिज्ञाका युक्तियुक्त परिणाम है। मैं इस मतसे पूर्णतया सहमत हूँ कि राष्ट्रका लक्ष्य स्वराज्य है, अहिंसा नहीं। और यह भी सच है कि मेरा लक्ष्य जितना स्वराज्य है, उतना ही अहिंसा है; क्योंकि मेरी यह धारणा है कि जनता अहिंसाके अलावा किसी और उपायसे स्वराज्य प्राप्त नहीं कर सकती। लेकिन क्या मैंने यह बात इन स्तम्भोंमें बार-बार नहीं कही कि भारत यदि हिंसासे भी स्वतन्त्र होता है तो उसके पराधीन बने रहने की अपेक्षा में इसे अधिक पसन्द कर गुलामी में रहते हुए उसे गुलाम बना रखनेवाले देशकी हिंसामें साथी बनना पड़ता है। परन्तु, यह सच है कि में मुक्ति प्राप्त करनेके किसी हिंसात्मक प्रयासमें शामिल नहीं हो सकता, चाहे इसका कारण और कुछ न होकर मेरा यह विश्वास ही क्यों न हो कि हिंसा द्वारा सफलता नहीं मिल सकती। अपने बड़ेसे-बड़े दुश्मनपर भी मैं गोली नहीं चला सकता। यदि मैं संसारको यह विश्वास दिलानेमें सफल हो जाता हूँ कि मानव-जातिकी प्रगतिके लिए अहिंसाका नियम ही सर्वश्रेष्ठ है और हिंसा उसके लिए बेकार है, तो पत्र-लेखक महोदय देखेंगे कि भारत अनायास ही अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा, लेकिन मैं यह बात निस्संकोच भावसे स्वीकार करता हूँ कि मैं तबतक कदापि सफल नहीं हो सकता जबतक कि पहले भारतको यह विश्वास न दिला दूँ कि वह अहिंसा और सत्यके द्वारा ही स्वतन्त्र हो सकता है, और किसी साधनसे नहीं।

मुझे यह बात भी स्वीकार कर लेनी चाहिए कि श्री मॉन्टेग्यु या लॉर्ड रीडिंग इस फैसलेके बारेमें क्या सोचेंगे, इससे मुझे कोई सरोकार नहीं है। इसलिए उनकी धमकियोंसे में विचलित या प्रभावित नहीं होता, और न किसी अन्य असहयोगीको ही होना चाहिए। असहयोगीने अपना अनुष्ठान पीछे मुड़कर न देखने के संकल्पके साथ आरम्भ किया था। परन्तु एक बात निश्चित है कि यदि भारत मन, वचन और कर्मसे अहिंसक हो जाये, तो श्री मॉन्टेग्यु और लॉर्ड रीडिंगतक का हृदय परिवर्तन हुए बिना नहीं रहेगा। इस समय स्थिति यह है कि यद्यपि कर्मकी हदतक अहिंसामें हमने आश्चर्यजनक प्रगति की है, किन्तु मन और वचनसे हम अभी अहिंसक नहीं हुए हैं। श्री मॉन्टेग्यु और लॉर्ड रीडिंगको हमारे कथनकी सच्चाईमें विश्वास नहीं है और