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ज्ञान माना है। यदि हम संसारकी ओर दृष्टि फेरें तो देख सकते हैं कि जिसे उक्त भाईने धर्म माना है वह धर्म नहीं, वरन् अधर्म है; और सर्वथा त्याज्य है। आज हम इस अधर्मके फलस्वरूप असंख्य बालाओंकी हत्या करते हैं। इतिहास इसके लिए हिन्दू पुरुष-वर्गकी भर्त्सना करेगा। लेकिन हमें इतिहासकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। हम बाल-विवाहका कडुवा फल स्वयं ही चख रहे हैं। हिन्दू युवकोंमें बहुतेरे निःसत्व, अपंग और भयग्रस्त हैं। इसका एक सबल कारण बाल-विवाह है, इस तथ्यको कदापि अस्वीकार नहीं किया जा सकता। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अपरिपक्व माता-पिताओंसे उत्पन्न सन्तानका शारीरिक गठन, चाहे जितने भी उपाय क्यों न किये जायें, मजबूत नहीं हो सकता। सौभाग्यसे उपर्युक्त भाई जिस नियमका उल्लेख कर रहे है उसे सारे हिन्दू मान्यता नहीं देते, इसलिए हिन्दुओंने अपनी शरीर-सम्पत्तिको अभी पूरी तरह नहीं खो दिया है। यदि इसका अक्षरशः पालन किया जाता तो हिन्दू-समाजमें सबल पुरुषोंका लोप ही हो जाता।

उचित शिकायत

हरिहर शर्मासे ‘नवजीवन' के बहुतसे पाठक परिचित नहीं होंगे। वे ‘काका' के कुटुम्बी कहे जा सकते हैं। मैं पाठकोंको इस परिवारका कुछ परिचय देता हूँ। जब भाई केशवराव देशपाण्डे बैरिस्टरने बड़ोदामें गंगानाथ विद्यालय खोला तब उन्होंने अपने आसपास एक शिक्षक-समुदाय इकट्ठा किया। उन्होंने परस्पर कुटुम्ब-भावना विकसित करने के विचारसे ऐसे उपनाम रखे मानों सब एक दूसरेके सम्बन्धी हों। संस्थाके रूपमें तथा भवनके रूपमें तो इस विद्यालयका लोप हो गया है; लेकिन भावके रूपमें यह आज भी विद्यमान है। इस संस्थाके पुराने कौटुम्बिक सम्बन्ध अभी बने हुए हैं। खूनका रिश्ता जैसे कभी नष्ट नहीं हो सकता, उस तरह आध्यात्मिक सम्बन्ध भी नष्ट नहीं हो सकता, इस विचारसे प्रेरित होकर इस कुटुम्बके जिन लोगोंको उपनाम दिये गये थे उन्होंने उन उपनामोंको पवित्र मानकर अभी तक बनाये रखा है। केशवराव देशपाण्डेको उनके कार्यकर्ता अब भी “साहेब" के नामसे जानते हैं और मान देते हैं। हमारे कालेलकर तो अपने आपको काका के नामसे ही पहचाने जानेकी अपेक्षा करते हैं। फड़केको फड़के नामसे तो बहुत कम गुजराती जानते हैं। हम सब तो उन्हें “मामा" नामसे ही पहचानते हैं। इसी तरह हरिहर शर्मा “अण्णा" हैं। दक्षिणी कुटुम्बोंमें प्रयुक्त उपनामोंमें अण्णा भी एक है। इसका प्रयोग तमिलमें भी लगभग इसी अर्थमें किया जाता है। अण्णा का अर्थ है भाई। एक अन्य व्यक्ति “भाई" नामसे पुकारे जाते हैं। हालाँकि वे अभी जीवित हैं तथापि वे न होने के बराबर हैं। मैं इस प्रख्यात कुटुम्बके सभी कुटुम्बियोंके नामोंसे परिचित नहीं हूँ। काका स्वयं ही किसी दिन फुरसतके समय हमें इस कुटुम्बका पूरा-पूरा परिचय देंगे, इस आशासे मैंने इतना सिर्फ हरिहर शर्माका परिचय देते हुए ही लिखा है।

इतनी प्रस्तावना लिखकर मैंने एक भ्रम भी दूर किया है। कुछ लोग अथवा बहुत लोग यह मानते आये हैं कि “काका” और ऐसे ही अन्य सेवक गुजरातको दी हुई मेरी भेंट हैं। सचमुच देखा जाये तो ये सब “साहेब" की देन है। उन्होंने इनको