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५१. पत्र: सी० एफ० एन्ड्रयूजको

उषःकाल, बुधवार, २१ मई, १९२४


प्रिय चार्ली,

तुम ऐसा क्यों कहते हो कि भीलोंके बच्चोंको खद्दरकी टोपियाँ और कमीजें नहीं पहननी चाहिएं? फिर वे क्या पहनें? तुमने जो दृष्टान्त दिया है, क्या वह उपयुक्त है? कलक्टर-जैसी ही भूषा धारण करनेवाला मिशनरी कलक्टरके साथ बैठकर इसी अनिष्टकारी सत्ताका अंग लगता है। यदि खद्दरकी टोपी शुद्धताका प्रतीक मानी जाती है तो उसे सभी लोगोंको क्यों नहीं धारण करना चाहिए? इस प्रकार शुद्ध मानी जानेवाली एक चीजके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना कल्याणकारी होगा। पर मैं तो चाहता हूँ कि अच्छे और बुरे दोनों ही लोग खद्दर पहनें, क्योंकि तन तो सभीको ढँकना होता है। इसलिए मैं इस प्रयासमें हूँ कि खद्दरको न तो नेकीके साथ जोड़ा जाये और न बदीके साथ। वह किस शक्लमें धारण किया जाता है, यह बात कोई महत्व नहीं रखती।

मैं जानता हूँ, तुम अपने पत्रोंके उत्तरमें एक पंक्तिकी भी अपेक्षा नहीं रखते लेकिन जब तुम ऐसी बातें पूछ बैठते हो जिनका जवाब देना जरूरी हो जाता है तब फिर चारा भी क्या है। हार्दिक स्नेह सहित,

मोहन


६, द्वारकानाथ टैगोर लेन

मूल अंग्रेजी पत्र (जी० एन० २६११) की फोटो-नकलसे ।

५२. जेलके अनुभव ― ६

उपवासका औचित्य

जब पिछले प्रकरणमें वर्णित घटनाएँ हुई, उस समय मेरी कोठरी ग्यारह कोठरियोंवाले एक तिकोने अहाते में थी। ये कोठरियाँ भी पृथक अहातेमें ही बनी थीं, लेकिन दूसरे पृथक अहातों और इस अहातेके बीच एक मोटी और ऊँची दीवार थी। इस त्रिभुजाकार अहातेकी आधार-भुजा दूसरे पृथक अहातोंकी तरफ जाने के रास्तेके बगलमें ही पड़ती थी। इसलिए कैदियोंका वहाँसे आना-जाना मुझे साफ नजर आता था। असलमें इस रास्तेपर कैदियोंका आना-जाना बना ही रहता था, इसलिए कैदियोंके साथ सम्पर्क आसान था। कोड़ोंकी घटनाके कुछ ही दिन बाद हमें यूरोपीय वार्ड में भेज दिया गया। यहाँकी कोठरियाँ बड़ी और अधिक हवादार तथा रोशनीवाली थीं।