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ब्रह्मचर्य

ऊपर मैं क्षीण किन्तु नीरोग शरीरके विषयमें लिख चुका हूँ। परन्तु उसका अर्थ यह नहीं करना चाहिए कि शारीरिक बलका विकास न किया जाये। मैंने तो सूक्ष्मतम ब्रह्मचर्यकी बात अपनी अति प्राकृत भाषामें लिखी है। इससे शायद गलतफहमी हो सकती है। जो सब इन्द्रियोंके पूर्ण संयमका पालन करना चाहता है, उसे अन्तमें शारीरिक क्षीणताका स्वागत करना ही होगा। जब शरीरका मोह और ममत्व क्षीण हो जायेगा, तब शारीरिक बलकी इच्छा ही जाती रहेगी।

परन्तु विषयेन्द्रियको जीतनेवाले ब्रह्मचारीका शरीर अति तेजस्वी और बलवान होना ही चाहिए। यह ब्रह्मचर्य भी अलौकिक है। जिसकी विषयेन्द्रिय कभी स्वप्नावस्थामें भी विकारी न बने, वह मनुष्य इस जगतमें वन्दनीय है। इसमें शंका नहीं कि उसके लिए दूसरा सब प्रकारका संयम सहज हो जाता है।

इस ब्रह्मचर्यके सम्बन्धमें एक दूसरे भाई लिखते हैं:
मेरी स्थिति दयाजनक है। दफ्तरमें, रास्तेमें, रातमें, पढ़ते समय, काम करते समय और ईश्वरका नाम लेते समय भी वही विकारी विचार आते है। मैं मनके इन विचारोंको किस तरह वशमें रखूँ? मुझमें स्त्री-मात्रके प्रति मातृ-भाव कैसे उत्पन्न हो सकता है? मेरी आँखोंसे शुद्ध वात्सल्यको ही किरणें किस प्रकार निकल सकती हैं? मेरे दुष्ट विचार किस प्रकार निर्मल हो सकते हैं? मैंने आपका ब्रह्मचर्य-विषयक लेख[१] अपने पास रख छोड़ा है। परन्तु इस परिस्थितिमें वह बिलकुल उपयोगी नहीं होता?

यह स्थिति हृदय-द्रावक है। बहुतोंकी ऐसी स्थिति होती है। परन्तु जबतक मन ऐसे विचारोंसे लड़ता रहता है, तबतक भय करनेका कोई कारण नहीं है। आँखें बुरा काम करती हों तो उनको बन्द कर लेना चाहिए। कान बुरी बात सुनते हो तो उन्हें रुईसे भर लेना चाहिए। आँखोंको हमेशा नीचा रखकर ही चलनेकी रीति अच्छी है। इससे उन्हें दूसरी बातें देखनेका अवसर ही नहीं मिलता। जहाँ गन्दी बातें होती हों अथवा गन्दे गाने गाये जाते हों वहाँसे उठ जाना चाहिए। स्वादेन्द्रियपर पूरी तरह नियन्त्रण रखना चाहिए।

मेरा अनुभव तो ऐसा है कि जिसने स्वादको नहीं जीता वह विषयोंको नहीं जीत सकता। स्वादको जीतना बहुत कठिन है। इस विजयके साथ ही दूसरी विजय सम्भव बन जाती है। स्वादको जीतनेके लिए एक नियम तो यह है कि मसालोंका सर्वथा अथवा जितना हो सके उतना त्याग किया जाये। दूसरा नियम जो इससे भी अधिक जबर्दस्त है, यह है कि हमें भोजन स्वादके लिए नहीं, बल्कि केवल शरीर-रक्षाके लिए ही करना चाहिए। हम इस भावनाका पोषण सदा करते रहें। हम अपने फेफड़ोंमें

हवा स्वादके लिए नहीं, बल्कि श्वासके लिए भरते हैं और हम पानी प्यास बुझाने के लिए पीते हैं। इसी प्रकार हमें भोजन केवल भूख मिटाने के लिए ही करना चाहिए। दुर्भाग्यवश हमारे माँ-बाप हमें बचपनसे ही उलटी आदत डाल देते हैं। वे हमें शरीरके

 
  1. कदाचित् “ब्रह्मचर्यका पालन कैसे करें", शीर्षक लेख, नवजीवन, १०-११-१९२१; देखिए खण्ड २१, पृष्ठ ४३८-३९।