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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरे पापयुक्त विचार क्षीण होते जा रहे हैं, परन्तु उनका नाश नहीं हो पाया है। यदि मैं विचारोंपर भी नियन्त्रण प्राप्त कर सका होता तो पिछले दस बरसोंमें मुझे जो तीन रोग――पसलीका दर्द, पेचिश और आंत्र-पुच्छ शोथ[१] हुए वे कभी न होते। मैं मानता हूँ कि नीरोग आत्माका शरीर भी निरोग होता है। इसका अर्थ यह है कि आत्मा ज्यों-ज्यों रोगरहित, निर्विकार होता जाता है, त्यों-त्यों शरीर भी नीरोग होता जाता है। नीरोग शरीरका अर्थ बलवान शरीर नहीं है। बलवान आत्मा क्षीण शरीरमें वास करता है। ज्यों-ज्यों आत्मबल बढ़ता है, त्यों-त्यों शरीरकी क्षीणता बढ़ती है। सम्पूर्ण नीरोग शरीर देखनेमें बहुत क्षीण हो सकता है। बलवान शरीरमें प्रायः रोग तो रहते ही हैं; रोग न हों तो भी वह शरीर संक्रामक रोगोंका शिकार तुरन्त हो जाता है। परन्तु पूर्ण नीरोग शरीरपर ऐसे रोगोंका असर हो ही नहीं सकता। शुद्ध रक्तमें संक्रामक रोगोंके कीटाणुओंको दूर रखनेका गुण होता है।

ऐसी अद्भुत दशा दुर्लभ जरूर है, नहीं तो अबतक मैं उसे प्राप्त कर चुका होता, क्योंकि मेरी आत्मा साक्षी देती है कि ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए जिन उपायोंसे काम लेनेकी आवश्यकता है, उनसे मैं मुँह नहीं मोडूँगा। ऐसी कोई भी बाह्य वस्तु नहीं है, जो मुझे उससे दूर रखनेमें समर्थ हो। परन्तु पूर्व संस्कारोंको धोना सबके लिए सरल नहीं होता। इसमें देर हो रही है, फिर भी मैं बिलकुल निराश नहीं हुआ हूँ, क्योंकि मैं निर्विकार अवस्थाकी कल्पना कर सकता हूँ, उसकी धुंधली झलक भी देख सकता हूँ; और मैंने जितनी प्रगति अबतक की है वह मुझे निराश करनेके बदले आशावान बनाती है। फिर भी यदि मेरी आशा पूर्ण होने से पूर्व ही मेरा शरीर-पात हो जाये तो भी मैं अपनेको असफल नहीं मानूंगा। मुझे जितना विश्वास इस देहके अस्तित्व में है उतना ही पुनर्जन्ममें भी है। इसलिए मैं जानता हूँ कि थोड़ा-सा प्रयत्न भी व्यर्थ नहीं जाता।

अपने अनुभवोंका इतना वर्णन करनेका कारण यही है कि जिन्होंने मुझे पत्र लिखे हैं उन्हें तथा उनके समान दूसरे लोगोंको धीरज रहे और उनमें आत्मविश्वास पैदा हो। आत्मा सबकी एक ही है। सबकी आत्माओंकी शक्ति एक-सी है। अन्तर केवल यह है कि कुछ लोगोंकी शक्ति प्रकट हो गई है और कुछको प्रकट होनी है। प्रयत्न करनेसे उन्हें भी अवश्य ही ऐसा ही अनुभव होगा।

यहाँतक मैंने व्यापक अर्थवाले ब्रह्मचर्यका विवेचन किया। ब्रह्मचर्यका लौकिक अथवा प्रचलित अर्थ तो इतना ही माना जाता है――विषयेन्द्रियका मन, वचन और कायाके द्वारा संयम। यह अर्थ वास्तविक है, क्योंकि उसका पालन करना बहुत कठिन माना गया है। स्वादेन्द्रियके संयमपर उतना जोर नहीं दिया गया। इस कारणसे विषयेन्द्रियका संयम मुश्किल और प्रायः अशक्य जैसा हो गया है। फिर, रोगसे अशक्त बने हुए शरीरमें विषय-वासना हमेशा अधिक रहती है, ऐसा चिकित्सकोंका अनुभव है। इसलिए भी हमारे देशके रोगग्रस्त लोगोंको ब्रह्मचर्यकी रक्षा करना कठिन मालूम होता है।

  1. गांधीजीको ये रोग क्रमश: अक्तूबर १९१४, अगस्त १९१८ और जनवरी १९२४ में हुए थे।