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कांग्रेस-संगठन

‘यंग इंडिया’ का प्रायः यह सारा ही अंक हिन्दू-मुस्लिम एकताके सवालपर विचार करनेमें ही लगा देना पड़ा। पाठकगण इसके लिए मुझे क्षमा करेंगे। अगर वे मेरे इस विचारसे सहमत है कि आज भारतके सामने इतना महत्वपूर्ण और आवश्यक सवाल दूसरा नहीं है तो वे मुझे तुरन्त ही क्षमा कर देंगे। मेरे विचारसे इसी समस्याने ही हमारी प्रगतिका रास्ता रोक रखा है। इसलिए मैं पाठकोंसे निवेदन करता हूँ कि इस वक्तव्यको वे पूरे ध्यानसे पढ़कर ऐसे विचार और तथ्य (जरूरी नहीं कि प्रकाशनार्थ ही हों) लिख भेजें जिनमें इस समस्यापर कुछ अधिक प्रकाश पड़ता हो या जो इस बयानमें मुझसे हुई तथ्य अथवा विचार-सम्बन्धी भूलोंको सुधारनेमें सहायक हों।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २९-५-१९२४

७८. कांग्रेस-संगठन

मैंने कौंसिल-प्रवेशके प्रश्नपर अखबारोंके लिए दिये गये अपने वक्तव्यमें[१] यह कहा था कि जबतक मैं अपने विचारोंके प्रकाशमें इस प्रश्नका विवेचन न कर लूँ कि कांग्रेस-संगठनको अपना काम किस प्रकार करना है तबतक मेरा वक्तव्य पूरा नहीं माना जा सकता। मेरा और स्वराज्यवादियोंका मतभेद सच्चा और महत्वपूर्ण है। मेरा खयाल है कि इन सच्चे मतभेदोंको साफ-साफ स्वीकार कर लेनेसे देशकी प्रगति में तेजी आयेगी; जब कि सिर्फ इन मतभेदोंको छिपाने के लिए वस्तुस्थितिपर लीपापोती करके कोई समझौता कर लेनेसे देशकी प्रगतिके मार्गमें बाधा ही पड़ती। दोनों पक्षोंको अपने-अपने मतोंके प्रतिपादनकी पूरी-पूरी छूट है, अलबत्ता हमारे सामान्य उद्देश्यको आँच नहीं आनी चाहिए।

इसलिए कांग्रेस-संगठनका काम किस प्रकार चलाना है, इसपर विचार करना आवश्यक है। यह बात तो मेरे सामने बिलकुल स्पष्ट है कि जिस प्रकार परस्पर दो विरोधी मत रखनेवाले राजनीतिक दल एक साथ मिलकर किसी शासन-तन्त्रका संचालन कुशलतापूर्वक नहीं कर सकते, उसी प्रकार स्वराज्यवादी और अपरिवर्तनवादी मिलकर कांग्रेसका संगठन भी कुशलताके साथ नहीं चला सकते। खिताबों आदिके बहिष्कारको में कांग्रेस-कार्यक्रमका बिलकुल ही अभिन्न अंग मानता हूँ। बहिष्कारके दो लक्ष्य हैं: एक तो खिताब आदि प्राप्त लोगोंको समझा-बुझाकर उन्हें छोड़नके लिए राजी करना; और दूसरे, कांग्रेसको बहिष्कृत संस्थाओंके प्रभावसे पूरी तरह मुक्त रखना। यदि पहला लक्ष्य तत्काल सफल हो गया होता तो हम अपने उद्देश्य तक तभी पहुँच गये होते। लेकिन अगर हमें कभी अहिंसात्मक असहयोगके क्रमके जरिये अपने उद्देश्य तक पहुँचना है तो दूसरा लक्ष्य भी उतना ही आवश्यक

  1. देखिए “वक्तव्य : एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडियाको”, २२-५-१९२४।