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१२३. सूरत जिला

दो वर्ष पहले सूरत जिला गुजरातमें सबसे आगे था। पैसा इकट्ठा करनेमें आगे, चरखा चलानेमें आगे, राष्ट्रीय स्कूल स्थापित करनेमें आगे। इसको देखते हुए उससे जितनी प्रगतिकी आशा की जा सकती थी उतनी प्रगति फिलहाल दिखाई नहीं देती। चन्दा उगाहनेका काम मन्द है; चरखा भी ढीला चलता है; राष्ट्रीय स्कूलोंकी नींव मजबूत नहीं हुई है।

इसका कारण स्पष्ट है। सारे देशमें मतभेदोंकी जो हवा फैली हुई है उसका असर सूरतपर भी हुआ है। बीती बातोंपर विचार करनेसे लाभ नहीं। आज क्या किया जाये, यही प्रश्न सामने है।

पहला कार्य तो सूरत नगरपालिकाके भूतपूर्व २२ पार्षदोंपर ४०,००० रुपयेकी जो डिगरी हुई है, उसके विरुद्ध कार्रवाई करना है। यह डिगरी २२ पार्षदोंपर नहीं वरन् पूरी भूतपूर्व नगरपालिकाके विरुद्ध हुई है। इसे नगरपालिकाके विरुद्ध भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि जो नागरिक इसका समर्थन करते थे और जिन मतदाताओंने सदस्योंको चुना था यह उनपर हुई है। इसीलिए इस पैसेको अदा करनेकी जवाबदेही सूरतके असहयोगी नागरिकोंपर है।

असहयोगियोंका उत्तरदायित्व पैसा देकर ही खत्म नहीं हो जाता। २२ प्रतिनिधियोंको अपनी ओरसे पैसा देना पड़े ऐसा तो सूरतके असहयोगी कभी न होने देंगे। लेकिन उनका उत्तरदायित्व तो यह है कि वे ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दें जिससे सरकार इस डिगरीका इजराय ही न करा सके। इसका एकमात्र उपाय तो स्वयं इस डिगरीके विरुद्ध ही स्थानीय सत्याग्रह करना है। इसका अर्थ है नागरिक सरकारको विनयपूर्वक लिखें कि यदि वह इस डिगरीकी रकम वसूल करेगी तो नागरिक अपना विरोध प्रकट करनेके लिए दूसरे कर नहीं देंगे। किसीने भी चालीस हजार रुपयेका उपयोग निजी रूपसे नहीं किया है। इसलिए सरकार चाहे तो डिगरीका पैसा वसूल करे; परन्तु इसके साथ-साथ वह कर उगाहनेके भारको भी वहन करे। यदि सब करोंकी अदायगी बन्द करना मुश्किल हो तो जो कर बन्द करने योग्य जान पढ़ें उनको लोग बन्द कर दें।

एक समय ऐसा था जब हम ऐसे कदम उठाना आसान काम समझते थे । अब लोगोंका उत्साह मन्द पड़ गया है, इसलिए ऐसे कदम उठाना मुश्किल जान पड़ता है। लेकिन गुजरातमें बोरसदका[१] उदाहरण ताजा है इसलिए यह कदम मुश्किल नहीं लगना चाहिए।

 
  1. गुजरातमें खेड़ा जिलेके बोरसद ताल्लुकेमें सरकार द्वारा लगाये गये दण्ड-करके विरोधमें दिसम्बर १९२३ में सत्याग्रह किया गया था। फलस्वरूप सरकारको जनवरी, १९२४ में यह कर वापस ले लेना पड़ा था।