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सूरत जिला

अब दो शब्द स्वराज्यवादियोंसे। जो स्वराज्यवादी विधान परिषदोंमें गये हैं वे सरकारको लिख सकते हैं कि यदि सरकारका विचार इस तरह डिगरीका पैसा वसूल करनेका हो तो वे लोग विधान परिषदोंमें नहीं रह सकते। कुछ लोग कह सकते है कि सरकारको तो यही चाहिए। ऐसा सम्भव है; लेकिन हमें तो अपने कर्त्तव्यका ही विचार करना है। यदि ऐसी छोटी-छोटी बातोंके लिए विधान परिषदोंके सदस्य निरुपाय हों तो वे विधान परिषदोंमें रहकर ही क्या करेंगे?

मेरा तो यह विश्वास है कि यदि पक्के असहयोगी और स्वराज्यवादी परस्पर फिर मिल जायें तो सूरत जैसा पहले था फिर वैसा ही हो जाये और अग्रस्थान ग्रहण कर ले। हाँ, इतना जरूर है कि ऐसा करनेके लिए आत्मविश्वासकी जरूरत होगी। यदि विधान परिषदोंमें पहुँचे हुए हमारे लोग उन सभाओंसे तंग आकर भी उनसे बाहर आ जानेकी बुद्धिमत्ता नहीं दिखाते तो उनका पहला तेज फिर नहीं लौटेगा। यदि असहयोगके समस्त अंगोंमें अन्धविश्वास नहीं, बल्कि ज्ञानमय विश्वास हो तभी हमारा कार्य चमकेगा। शान्तिमें, सत्यमें और पंच बहिष्कारोंमें हमारी श्रद्धा होनी चाहिए। यदि वह न हुई और लोकमतके या मेरे मतके अधीन होकर कार्य किया गया तो विफलता ही हाथ आयेगी।

असहयोग और अहिंसा (मर्यादित) प्रयोगकी अवस्थासे निकल चुके हैं। अब जो लोग उन्हें समझ गये हैं उनके लिए वे सिद्ध-प्रयोग अर्थात् सिद्धान्त बन चुके हैं। उनके लिए तो स्वराज्य आज मिले अथवा कल, उसे प्राप्त करनेका साधन केवल शान्तिमय असहयोग ही है।

इतना सूरत शहरपर आई हुई आपत्तिके सम्बन्ध में।

और बारडोलीका क्या कहना है? बारडोली तो ढाई वर्ष पहले तैयार मानी जाती थी।[१] आज क्या वह उससे अधिक तैयार है? वहाँ कितने कार्यकर्त्ता काम कर रहे हैं? मैंने बारडोलीके बारेमें बहुत-कुछ सुना है; लेकिन मैं इस समय अधिक नहीं कहूँगा।

वहाँ से मुझे आजतक जो खबरें मिली हैं वे आशाजनक नहीं हैं। वहाँ अभी अस्पृश्यता कायम है। कालीपरज[२] अभीतक उजली नहीं बनी। दुबले[३] सबल नहीं हुए। राष्ट्रीय स्कूल अब गये, तब गये। खादीका काम भी जैसे-तैसे चल रहा है। मेरी तीव्र इच्छा होती है कि मैं बारडोली जाकर लोगोंसे इन सब शिकायतोंका उत्तर माँगूँ। बारडोलीके प्रतिनिधियोंने ईश्वरको साक्षी मानकर मुझे जो वचन दिया था वह आज भी मेरे हृदयमें अंकित है। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वे अस्पृश्यताका निवारण करेंगे, कालीपरज जातिको उजलीपरज बनायेंगे, दुबलोंके दुःखोंको हरेंगे और बारडोलीको खादीमय बनायेंगे। आज तो मैं यह आशा करता हूँ कि बारडोलीके लोग मुझसे कहें, "हम तो आपके जेल जानेके छः महीने बाद ही तैयार हो गये

 

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  1. २९ जनवरी, १९२२ को हुई बारडोली ताल्लुका परिषद्में गांधीजीका सविनय अवज्ञा आन्दोलनको आरम्भ करनेका सुझाव स्वीकार किया गया था।
  2. और
  3. दक्षिण गुजरातकी पिछडी जाति।