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१४२. पत्र: वसुमती पण्डितको

[२० जून, १९२४][१]

चि० वसुमती,

तुम्हारा पत्र मिला। अपने अक्षरोंको तो छापेके जैसे सुन्दर बना डालो। तुमने अभ्यास पुस्तिकाके बारेमें कुछ भी नहीं लिखा है। रामदास और बा कल सूरतसे लौट आये। प्रागजीका मुकदमा मुल्तवी हो गया है। वहाँ निश्चित रहकर अपना स्वास्थ्य सुधारो। राधाकी गाड़ी जैसे-तैसे चल रही है; मणि तेजीसे तरक्की कर रही है। यहाँ पानी अभी नहीं बरसा है; बूँदाबाँदी हो जाया करती है।

बापूके आशीर्वाद

वसुमती बहन

मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ४४७) से।

सौजन्य: वसुमती पण्डित

१४३. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

ज्येष्ठ बदी ५ [२१ जून, १९२४][२]

भाई घनश्यामदासजी,

आपका पत्र मिला है।

कार्य सिध्ध हो या न हो तो भी हमारे अहिंसक हि रहना चाहिये। यह सिद्धांतको प्राकृत रूपसे बतानेका है। ठीक कहना यह है कि अहिंसाका फल शुभ ही है। ऐसा हमारा दृढ़ विश्वास है इसलीये फल आज मीलो वा वर्षोंके बाद उससे हमें कुछ वास्ता नहीं है। २०० वर्षके आगे जिनको जबरदस्तीसे इस्लाममें लाये[३] गये उससे इस्लामको लाभ हो ही नहीं सकता क्योंकि इससे बलात्कारकी नीतिको स्थान मिला है। इसी तरह यदि किसीको बलात्कारसे या फरेबसे हिन्दु बनाया जाये तो उसमें हिंदी धर्मका नाशकी जड है। सामान्यतः तात्कालिक फल देखकर हमें धोखा खाना है। बडी समाजमें दो सो वर्ष कोई चीज नहीं है।

 
  1. डाकखानेकी मुहरसे।
  2. यह पत्र प्रेषीके ११ जून, १९२४ को लिखे पत्रके उत्तरमें लिखा गया था। १९२४ में ज्येष्ठ बदी ५, २१ जूनको पड़ी थी।
  3. मूलमें यहाँ लागे है।