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परदा और प्रतिज्ञा

अब रही प्रतिज्ञा। मैंने सुना है कि लोगोंने प्रतिज्ञा भी अच्छी संख्यामें ली है। यह भी सुना है कि वह सच्चे दिलसे ली गई है। उसे लेते समय विधिका पालन समुचित रूपसे किया गया था। इसलिए हमें आशा रखनी चाहिए कि उसका पालन पूर्णरूपेण किया जायेगा; परन्तु मेरा अनुभव तो यह है कि बड़े-बड़े सम्मेलनोंमें ली गई प्रतिज्ञाएँ वहींकी-वहीं रह जाती हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रतिज्ञाएँ ली ही न जायें। मेरा मत और अनुभव तो यही है कि प्रतिज्ञाके बिना मनुष्य आगे बढ़ ही नहीं सकता। प्रतिज्ञाका अर्थ है मरते दमतक किसी बातपर दृढ़ रहनेका निश्चय। ऐसे निश्चयके बिना कोई काम नहीं हो सकता। 'यथाशक्ति' का कुछ अर्थ नहीं। प्रतिज्ञासे मनुष्यको अक्षय शक्ति मिलती है। 'यथाशक्ति' करनेकी इच्छा रखनेवाला कभी-न-कभी तो निर्बलताका परिचय देता ही है। उस समय वह निस्सहाय हो जाता है। परन्तु ऐसे समयमें प्रतिज्ञा मनुष्यको बचा लेती है। मनुष्य ईश्वरको साक्षी करके अनेक व्रत धारण करता है। जब उसकी शक्ति चली जाती है, तब अनाथोंका वह नाथ उसके पास आकर खड़ा हो जाता है।

हमने बदकिस्मतीसे प्रतिज्ञाका मान घटा रखा है। लोग प्रतिज्ञा लेते समय विचार नहीं करते; इसीसे वे उसका [ समुचित ] पालन नहीं कर पाते। हम प्रतिज्ञाका पालन न करनेकी टेव पड़ जानेसे लगभग यह मानने लगे हैं कि उसका पालन करनेकी जरूरत ही नहीं है। हम आशा करते हैं कि जिन राजपूत भाई-बहनोंने प्रतिज्ञाएँ ली हैं, वे उनका पालन करेंगे।

परिषद्की सादगी कांग्रेसके अनुकरणके योग्य थी। इस बड़े जनसमूहको सिर्फ दाल-रोटीके सिवा और कोई भोजन नहीं दिया गया। बड़े समुदायोंमें इससे अधिककी सम्भावना भी नहीं है; और वह शोभनीय भी नहीं है। सिख लोग भी अपने संघोंमें इसी तरहकी सादगी रखते हैं। सादगीका सबक अभी कांग्रेसको सीखना है। इससे खर्च और मेहनत दोनों बच जाते हैं, शरीरमें स्फूर्ति बनी रहती है और स्वास्थ्य भी नहीं बिगड़ने पाता।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २२-६-१९२४