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लोकमान्यकी पुण्यतिथि

उसी प्रकार महाराष्ट्रको भी जीतनेकी आशा रखता हूँ । पर ऐसा करनेके लिए मुझे महाराष्ट्रीय अपरिवर्तनवादियोंकी सहायताकी जरूरत होगी । यदि उन्होंने सत्य और अहिंसा के रहस्य को समझ लिया हो तो उन्हें मतभेद रखते हुए भी परिवर्तनवादियों के प्रति सक्रिय प्रेमका परिचय देना चाहिए। उन्हें उनपर टीका-टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। एक-दूसरे के सिर फोड़नेके बदले दूसरा बहुतेरा काम हर पक्ष के सामने पड़ा हुआ है ।

दो प्रख्यात सज्जनोंने मुझसे अनुरोध किया है कि दोनों दलोंको एक करके उनका नेतृत्व मैं करूं । अपने विस्तृत पत्रमें उनमें से एकने लिखा है :[१]

मेरे विचारके अनुसार तिलक-नीति और गांधी-नीतिमें कोई अनिवार्य अथवा तात्त्विक विरोध नहीं है; दोनोंमें अन्तर जरूर है परन्तु उतना ही जितना कि पनडुब्बियों द्वारा डाले गये घेरे और हवाई जहाजों द्वारा किये गये हमले में होता है। इतना ही नहीं बल्कि दोनों दल एक साथ, सामान्य शत्रुके मुकाबले समान उद्देश्य के लिए खुले तौरपर, निश्छल रहकर अर्थात् एक सद्भावनापूर्ण समझौता करके काम कर सकते हैं (अपनी-अपनी इन नीतियोंके अनुसार, तिलक-नीति कौंसिलोंमें और गांधी-नीति कौंसिलोंके बाहर खुले मैदान में ) ।

इन वाक्योंमें एक हदतक स्थिति यथार्थरूपमें प्रदर्शित हो गई है । 'एक हदतक' मैं इसलिए कहता हूँ कि असहयोगकी मेरी योजनामें कौंसिलोंमें भाग लेनेकी बात शामिल नहीं है । यह मेरी न्यूनता हो, कदाचित् है भी । एक ही आदमी दोनों गतिविधियों -- पनडुब्बी और हवाई जहाज -- का संचालन नहीं कर सकता । और दोनों का लक्ष्य एक होनेपर भी दोनोंके निदेशक एक-दूसरेकी जगह भी नहीं ले सकते । मैं कौंसिलोंके बाहर काम करके यहाँतक कि उसकी बुराइयोंको सामने रखकर और इस प्रकार लोगोंको उस ओरसे विरत करके वहाँ किये जानेवाले कामको और अधिक निर्दोष बना सकता हूँ । अपने कथनको स्पष्ट प्रदर्शित करनेके लिए तो इससे ज्यादा अच्छी उपमा 'एन्टीसेप्टिक' (पूतिनाशक) और 'ऐसेप्टिक' (प्रतिनिवारक) चिकित्सा पद्धतियोंका अन्तर है । एकका काम रोगाणुओंका नाश करना और दूसरीका काम रोगाणुओंको उत्पन्न ही न होने देना है । ये दोनों प्रयोग एक ही समय और एक ही रोगीपर नहीं किये जा सकते । परन्तु इन दोनों प्रयोगों के हिमायती सर्जन अपने-अपने प्रयोग उन प्रयोगोंको माननेवाले रोगियोंपर कर सकते हैं; और ऐसा करते हुए एक-दूसरेके कार्य में किसीके द्वारा रुकावट डाले जानेकी भी सम्भावना नहीं है । यही सज्जन आगे लिखते हैं:

जबतक तिलकजी और गांधीजीका विरोध बन्द न होगा तबतक भारतके हृदयमें इन दोनोंके बीच खींचतान होती रहेगी और देश स्थिरचित्त होकर कार्य करनेमें असमर्थ रहेगा ।

यदि सचमुच यही दुष्परिणाम हो, देश स्थिरचित्त न हो पाये तो मैं एक अकुशल सर्जन और खुद अपनी पद्धतिका लापरवाह प्रचारक सिद्ध होऊँगा । मैं अपने इन मित्र

  1. १. बाबू भगवानदास । देखिए “पत्र : बाबू भगवानदासको ", २७-७-१९२४ ।