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२६१. लोकमान्यकी पुण्यतिथि

लोकमान्य के भौतिक शरीरका विसर्जन हुए पहली अगस्तको ४ साल हो जायेंगे । इस पुण्यतिथिका मेरे लिए तथा मैं जिसका प्रतिनिधित्व करता हूँ उस आन्दोलनके लिए एक विशेष महत्त्व है । मित्र तथा आलोचक दोनों ही मुझे लिखा करते हैं कि महाराष्ट्रीय अखबारोंका एक भाग इस आन्दोलनपर तथा मुझपर लगातार आक्षेप करता रहता है; और मुझे उन्हें पढ़ना और उनका उत्तर देना चाहिए। परन्तु ऐसा करनेका लोभ मैं संवरण करता आया हूँ । परन्तु मित्रोंने जितना कुछ लिखा है और जो उद्धरण उन्होंने मेरे पास भेजे हैं उनसे उनका भावार्थं मेरी समझमें भली-भाँति आ चुका है ।

लोकमान्य की चौथी पुण्यतिथि के अवसरपर मैं उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उत्सुक हूँ। पर लोकमान्यके कितने ही श्रेष्ठ अनुयायियोंके अपने प्रति इस अविश्वासको देखते हुए मैं उसे किस तरह अर्पित करूँ ?

कार्य कठिन है । १९२०की उस चिरस्मरणीय रातको, सरदारगृहमें स्वर्गीय लोकमान्य के शव के अन्तिम दर्शन करके वापस लौटते समय अकेलेपनकी अनुभूतिसे मेरा हृदय बैठा जा रहा था। जबतक लोकमान्य थे तबतक में सुरक्षित था । परन्तु उनके चले जानेसे अपनी अतिशय अरक्षित दशाका मुझे ज्ञान हुआ । उनके साथ मैं मतभेद रख सकता था और अपना मतभेद आदरपूर्वक प्रकट भी कर सकता था; परन्तु हम दोनोंने कभी एक-दूसरेको गलत नहीं समझा । पर उनके अनुयायियों के बारेमें मुझे ऐसा नहीं लग पाया। इसका कारण यह नहीं है कि वे मुझपर अविश्वास ही करना चाहते हों; बल्कि अपने उस मार्ग दर्शकके अभाव में जिसका शब्द उनके लिए वेदवाक्य था, उन्हें मेरे मतके विषयमें हमेशा भय और सन्देह बना रहेगा और उनमें आपस में भी पूरी-पूरी सहमति नहीं रहेगी। उनमें परस्पर मतभेद पैदा हों ऐसी इच्छा तो मैं कर ही नहीं सकता। मैंने तो अनेक बार महाराष्ट्र दलकी प्रशंसा की है । इस दलकी सुनिश्चित नीति है । वह अनुशासन में भली-भाँति दीक्षित है । वह समर्थ है और उसने बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ की हैं। इस दलको तोड़ने की नहीं बल्कि उसपर कब्जा करनेकी मेरी इच्छा थी, और अब भी है। मैं चाहता था, और आज भी चाहता हूँ कि स्वराज्य प्राप्त करनेके साधन-सम्बन्धी मेरे विचारोंको यह दल मान्य कर ले । यदि लोकमान्य होते तो मुझे एकमात्र उन्हीं को अपने विचारोंका कायल करने की या उन्हें मुझे अपने विचारोंका कायल करनेकी जरूरत रह जाती । घटनाओं और परिस्थितियोंको वे अपने सहज ज्ञानसे ही समझ लेते थे । मुझसे उन्होंने कहा था कि "यदि लोग आपकी प्रणालीको स्वीकार कर लें तो मुझे अपना ही समझना ।"

परन्तु आज तो हम विभक्त महाराष्ट्रको देखते हैं। यदि सत्याग्रह विषयक मेरी श्रद्धा अटल होगी तो जिस प्रकार में अंग्रेजोंको जीतनेकी आशा रखता हूँ