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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हों वह राष्ट्रीय नहीं, स्वराजी नहीं, असहयोगी नहीं है । मैं तो स्वराज्यका जौहरी हूँ। जो शाला किसी मसरफ की होगी मैं उसीकी कीमत आकूंगा । हमें दृढ़तासे यह अटल निश्चय करके जाना चाहिए कि यदि शालामें अन्त्यज बालकोंको दाखिल होनेसे रोका जायेगा और माँ-बाप परोक्ष रूपसे अन्त्यज बालकोंका वहाँ भरती होना रोकना चाहेंगे तो हम उस शालाको त्याग देंगे। हम अन्त्यजोंके मुहल्लेमें जाकर रहेंगे और उनके लड़कोंको पढ़ायेंगे । यदि शहरके लड़के वहाँ आयें तो ठीक, नहीं तो हमारा इतना भार कम हुआ और पैसेकी इतनी जोखिम कम हुई। आज हमारे पास रुपया नहीं है । लोग हमें रुपया नहीं देते । अन्त्यजोंकी सेवाका काम लोगोंको पसन्द नहीं । यह काम अभी लोकप्रिय नहीं है । इससे लोग इसके लिए धन नहीं देते, यह मानने- में क्या बुराई है ? फिर भी हमें तो यही काम करते जाना है । हमें यह समझ लेना चाहिए कि लोग गलत रास्ते जा रहे हैं, उन्हें सीधे रास्तेपर आना ही होगा और जब वे उसपर आयेंगे तब हम उन्हें हरी झंडी दिखानेके लिए तैयार हैं। यदि हम किसी पाठशाला में असहयोगके स्थायी अंगोंको पोषित न कर सकें और फिर भी यह मानें कि वह राष्ट्रीय शाला है तो हम पाप के भागी होंगे ।

क्या मैं पागल हो गया हूँ ? यदि हम इस बातको मानते हों कि सूतके धागेसे स्वराज्य मिलेगा तो हमें ऐसा करके दिखाना चाहिए। मेरे नाम दो पत्र आये हैं । उनमें लिखा है :

आपकी तो बुद्धि मारी गई है; आप पहले तो चरखेकी बात कुछ मर्यादा रखकर करते थे किन्तु अब तो आप उसको भी छोड़ बैठे हैं . . .।

दुनिया मुझे मूर्ख कहे, पागल कहे, चाहे गालियाँ दे किन्तु मैं तो यही बात कहता रहूँगा । यदि दूसरी बात मुझे सूझती ही नहीं तो मैं क्या करूँ? मैं तो महाविद्यालय के स्नातकको भी यदि वह चरखेकी परीक्षामें पास न हो तो फेल कर दूंगा और प्रमाणपत्र नहीं दूंगा । यह आक्षेप किया जाता है कि यह तो जबरदस्ती है। अच्छा, जबरदस्तीके मानी क्या है ? हमें अंग्रेजी, गुजराती और संस्कृत पढ़नी पड़ेगी, क्या ऐसे नियम रखना जबरदस्ती नहीं है ? हम इसी तरह यह कहते हैं कि कातना सीखना भी लाजिमी है। यदि हमारा उसपर विश्वास न हो तो बात दूसरी है । हम विद्यार्थियोंसे यह कहें कि यदि वे सूत नहीं करतेंगे तो विद्यालय में नहीं रह सकेंगे, इसमें क्या बुराई है ? यदि कोई व्यक्ति फोड़े को छूते ही चिल्लाये तो क्या उसे हाथ ही न लगाया जाये ? वह उसे फोड़ देनेके बाद तो खुश ही होगा। यह जबरदस्ती नहीं, सुव्यवस्था है । हमने जिस बातको जरूरी माना है हमें चाहिए कि उसे निःसंकोच विद्यार्थियोंके सामने रखें। जिन बालकों और अभिभावकों को यह कुबूल न हो, वे न आयें। यदि प्राथमिक शालाएँ, विनय मन्दिर और महाविद्यालय स्वराज्य-शालाएँ हों तो उनमें [ कताई -सम्बन्धी ] यह नियम रहना ही चाहिए। हमारे लिए दूसरी बातपर विचार करना अप्रासंगिक है। जिनके विचार बदल गये हों वे इस्तीफा दे सकते हैं। जबतक कांग्रेसका प्रस्ताव कायम है तबतक उसमें ऐसे आदमीके लिए स्थान नहीं है ।