पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/५३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५०१
भाषण : शिक्षा परिषद् में

कुछ तो जटिल जरूर है। यदि हम बालकोंमें यह भावना फैलायें कि हिन्दू और मुसलमानोंको सगे भाइयोंकी तरह रहना चाहिए तो गुजरातमें भी जो कटुता है वह दूर हो जायेगी । यह सच है कि हमने गुजरात में परस्पर एक-दूसरेके सिर नहीं तोड़े, फिर भी हममें सखा-भाव नहीं है। इसके लिए शालाएँ जिम्मेवार हैं; परन्तु बहुत नहीं । अन्त्यज बालकोंको प्रविष्ट करनेकी जिम्मेवारी तो सभी शालाओंपर है ही । विद्या-पीठने अपने अस्तित्वको खतरेमें डालकर भी अन्त्यज बालकोंको लेनेका नियम निश्चित किया है । परन्तु शिक्षकोंने क्या किया है ? बच्चोंके अभिभावकोंने क्या किया है ? वे तो डरते हैं। वे अन्त्यजोंके बिना शालाएँ चलानेके लिए तैयार हैं। उनका भाव यह है कि यदि अन्त्यज दूर रखे जा सकें तो अच्छा रहे। इसीसे शालाओंमें अन्त्यज बालकोंकी संख्या बहुत नहीं है । सौभाग्यसे श्री इन्दुलाल, मामा तथा दूसरे सेवक हमारे पास हैं जिनकी बदौलत यहाँ १५ अन्त्यज शालाएँ हैं । ये तो हमारी बदनामी-के चिह्न हैं, ये हमारी कार्य-शक्ति या उदारता के चिह्न नहीं हैं । पृथक अन्त्यज-शालाओंकी जरूरत वहीं हो सकती है, जहाँ उनके प्रति तिरस्कार हो । नहीं तो अन्त्यज बालक सामान्य शालाओंमें ही क्यों न जायें ? हमें चाहिए कि हम प्रेमपूर्वक जबरदस्ती करके अन्त्यज बालकोंको ले जायें। हम पहले उन्हें पढ़ायें, नहलायें, खिलायें- पिलायें और तुतलाते हों तो उनके उच्चारण सुधारें । परन्तु हमने ऐसा नहीं किया है । यह छोटा नहीं, बड़ा गुनाह है।

यदि हम अस्पृश्यता निवारणको कांग्रेसके कार्यक्रमका अंग मानते हों तो हमें मानना पड़ेगा कि हम जबतक अन्त्यजोंको दूर रखेंगे और उन्हें गले लगानेके लिए तैयार न होंगे तबतक भारतको स्वराज्य मिलना असम्भव है । सम्भव है कि अंग्रेजी के अखबार या ववता मेरे इस कथनका दुरुपयोग करें, परन्तु मुझे इसकी फिक्र नहीं है । हमें स्वराज्य आत्मशुद्धिके बलपर ही लेना है । इसीलिए मैं यह बात कहता ही रहूँगा ।

मुझसे कहा जाता है कि शिक्षक लोग इस्तीफे दे देंगे और लड़के चले जायेंगे । इससे क्या होगा ? बेलगाँवके कार्यकर्त्ताओं और जमनालालजीने[१] मुझे खबर दी है कि लोग जगह-जगह इस्तीफे दे रहे हैं। कुछ जगह तो इतने सदस्य भी नहीं बन रहे हैं जिनसे समितिका काम चल सके। मुझे यह बात सुनकर प्रसन्नता हुई है । यदि मेरे पास एक करोड़ रुपये हों तो मैं उनको पत्थरपर बजाकर परखूंगा । और यदि कोई ठीक न बजे तो मैं उसका क्या करूँगा ? उसको तो मैं साबरमती में डाल दूंगा । परन्तु यदि उन एक करोड़ रुपयोंमें एक ही खरा हो और मुझसे यह कहा जाये कि उसको अवकाश निकालकर खोज लेना तो वह रुपया मुझे न जाने किस दिन हाथ लगेगा ? यदि मुझे अपने बाल-बच्चोंके लिए आटा लाना हो तो उसका उपयोग तत्काल कैसे हो सकता है ? इसलिए मैं तो उस रुपयेको आज ही खोजना और दूसरे खोटे रुपयोंको आज ही त्याग देना चाहता हूँ । मैं इन इस्तीफोंके विषय में इसीलिए निश्चित हूँ । ये खोटे रुपये जाते हैं तो चले जायें। हमारे शिक्षकोंको चाहिए कि वे निर्भय बनें, सत्यपर अडिग रहें और कहें कि जिस शालामें अन्त्यज बालक न आ सकते

  1. १. जमनालाल बजाज ।