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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कंकाल कैसा होता है, इसे बम्बईके निवासी क्या जानें ? हमारा काम जनताको जाग्रत करना है । यदि अखबार बन्द हो जायें तो इससे कुछ नहीं बिगड़ता । जनता अखबार नहीं पढ़ती। वह तो आपको और मुझको पढ़ती है। आप अपनी दो आँखें उसपर लगा दें; बस वह उन्हींको पढेगी। आप इसे वेदवाक्य समझें। यदि आपकी आँखोंमें कुछ होगा तो लोग उसे समझेंगे और अखबारको हँसकर एक तरफ रख देंगे ।

यदि हम सर्वसाधारणको शिक्षित करना चाहते हैं तो हम महाविद्यालयको महत्त्वपूर्ण मानते रहें; परन्तु आखिर हमें उसे गंगोत्रीका ही रूप देना है । अन्तमें उसके विद्यार्थी तैयार होकर देहात में जाकर बैठें। आप उनको इसी खयालसे तैयार करें। यदि विद्यार्थी थोड़े भी आयें तो इसकी चिन्ता नहीं ।

परन्तु मैं तो प्राथमिक शालाओंपर जोर देना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि विद्यापीठ प्राथमिक शालाओंपर ज्यादा ध्यान दे और उनकी विशेष जिम्मेवारी ले । प्राथमिक शालाएँ किस प्रकार चलानी चाहिए, यह विचारणीय है । मैं इस विषय में आपको अपना विचार बता रहा हूँ । सरकारी शालाओंका अनुकरण करना मूर्खता है । मैंने दो साल पहले 'यंग इंडिया 'में कुछ आँकड़े प्रकाशित किये थे ।[१] उनमें बताया गया था कि पंजाब में ५० वर्ष पहले जितनी प्राथमिक शालाएँ थीं आज उनसे कम हैं। ब्रह्मदेशमें भी जगह-जगहपर शालाएँ थीं। तमाम बच्चे लिखना-पढ़ना और हिसाब करना जानते थे । आज हालत वैसी नहीं रही है, क्योंकि सरकारने इन जंगली मानी जानेवाली ग्रामीण शालाओंको बन्द करके अपनी शालाएँ खोल दी हैं । सरकार भला सात लाख गाँवोंमें कैसे पहुँचती ? सातमें से तीन लाख गाँवोंमें मदरसे नहीं हैं। जहाँ ऐसी खराब हालत हो वहाँ सरकारी ढंगकी शालाएँ खोलनेसे क्या लाभ हो सकता है ? हमें मकानोंके बिना काम चला लेना चाहिए; हमें सिर्फ सुशील और सच्चरित्र शिक्षकोंकी आवश्यकता है। पुराने पण्डितजी ऐसे ही शिक्षक हुआ करते थे । वे लड़कोंको पढ़ाते थे और भिक्षा-वृत्तिसे गुजारा करते थे । वे आटा माँग लाते थे। घी मिल जाता तो घी भी माँग लाते थे । जहाँ ये पण्डितजी अच्छे न थे वहाँ शिक्षा भी अच्छी नहीं मिलती थी; जहाँ अच्छे थे वहाँ अच्छी शिक्षा मिलती थी । आज उनका लोप हो गया है। शिक्षा बढ़िया-बढ़िया मकानोंसे नहीं मिलती। यदि हम देहात में जाकर सादगीसे रहकर चरखे के प्रचार वगैराका काम करना चाहते हों तो हम अपनी मंजिलतक पहुँच सकते हैं। हम विद्यापीठसे इसपर विचार करनेको कहेंगे; परन्तु विद्यापीठ आपसे और मुझसे अलग नहीं है । पाँच-सात आदमी योजना तैयार करके विद्यापीठको दें और स्वार्थत्यागी लोग देहातमें जा बैठने और रूखा-सूखा जो भी मिल जाये उसे खाकर काम करनेके लिए तैयार हों तो यह हो सकता है ।

मुझे एक शिक्षकका पत्र मिला है जिसे मैंने 'नवजीवन 'में छापा है । वह लिखता है कि उसने अपनी शाला तीन विद्यार्थियोंसे शुरू की थी। आज इसमें ९६ विद्यार्थी हैं, इनमें ७३ लड़के हैं और २३ लड़कियाँ । इन्हें वह पेड़के नीचे बैठकर पढ़ाता है। ये

  1. १. ८ दिसम्बर, १९२० और २६ जनवरी, १९२१ के बीच यंग इंडिया में प्रकाशित दौलतराम गुप्तके लेखों में।