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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शुदा कानूनके अन्तर्गत की गई जब्ती और मानहानिके अभियोगके अन्तर्गत की गई क्षति-पूर्ति -- इनमें कौन-सी बात अधिक बुरी है ? 'क्रॉनिकल' के मामलेमें दिये गये निर्णय के बाद सरकारी कर्मचारियोंके कार्योंकी स्पष्ट और स्वतन्त्र आलोचना करनेका साहस कौन कर सकता है ? किसी दैनिक समाचारपत्रका सम्पादक जब सम्पादकीय लिखता है तब वह अपने शब्दोंको सोनेकी तरह बारीकीसे नहीं तोलता । उससे जल्दी में किसी शब्दका गलत प्रयोग हो जा सकता है। क्या उसे उसके लिए क्षतिपूर्ति करनी होगी, चाहे वह शब्द उसने स्पष्टतः अच्छी भावनासे, बिना द्वेषके तथा जनताकी भलाई के लिए ही लिखा हो ? 'क्रॉनिकल' में सम्पादकीय लिखनेवाला लेखक वास्तव में श्री पेन्टरको नहीं जानता था । इसलिए उन्हें बदनाम करनेमें जिस तरह खुद उन विद्वान् न्यायाधीशकी कोई दिलचस्पी नहीं थी जिन्होंने क्षतिपूर्तिका निर्णय दिया, उसी तरह लेखककी भी उसमें दिलचस्पी नहीं थी। इस निर्णयको मैं बदलेकी भावनासे प्रेरित आदेश मानता हूँ ।

जनता यह नहीं मान सकती कि श्री पेन्टरको 'क्रॉनिकल' की टिप्पणीसे कोई हानि पहुँची थी । मेरा तो यह खयाल है कि वे जनताकी दृष्टिमें 'क्रॉनिकल' की टिप्पणी से उतने नहीं गिरे जितने अपनी इस जीतसे गिरे हैं । 'क्रॉनिकल' के विरुद्ध यह आदेश पास करवाकर उन्होंने अपनेको निर्दोष सिद्ध नहीं किया है, प्रत्युत उन्होंने यह सिद्ध किया है कि वे सख्त सार्वजनिक आलोचनाको सहज-भावेन स्वीकार करनेमें असमर्थ हैं। मुझे उनपर तरस आता है।

किन्तु इस मामलेको दृष्टिमें रखते हुए मुझे जो बात खटक रही है वह है पत्रकारकी स्थिति । मनुष्य अपने दृढ़ विश्वासोंको सिद्ध करनेमें सदा समर्थ नहीं होता । यदि उसके लिए किन्हीं सार्वजनिक कार्यों तथा उनके कर्त्ताओंकी आलोचना आवश्यक हो जाये तो उसे चाहिए कि वह अपने दृढ विश्वासोंको सिद्ध करनेकी झंझटमें पड़े बिना उन्हें स्पष्ट करके व्यक्त कर दे । उदाहरण के लिए, मेरा पूर्ण विश्वास है कि सर शंकरन नायरके मामलेमें दिया गया न्यायाधीशका निर्णय पक्षपात रंजित था[१] और मुझे इसमें रंचमात्र सन्देह नहीं है कि न्यायाधीशका मानसिक झुकाव राजनीतिक कारणोंसे सर माइकेल ओ'डायरके पक्षमें था । फिर भी जो कुछ मैंने कहा है यदि उसे निन्दात्मक समझा जाये और यदि न्यायाधीश मुझपर अभियोग चलानेका नोटिस भेजे तो मुझे लोकहितकी दृष्टिसे स्पष्ट मत प्रकट करनेपर नम्रतापूर्वक तथा दीनभावसे बिना शर्त क्षमा-याचना करनेको कहा जायेगा और इसका कारण यह होगा कि मैंने जो कुछ कहा है उसे मैं सिद्ध नहीं कर सकता ।

श्री पेन्टर अनजाने ही एक बड़े षड्यन्त्रके मोहरे बन गये हैं। यह सरकार अवसरका पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहती है । उसे लगता है कि हम असंगठित हैं और हममें परस्पर फूट है। वह समझती है कि हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरेका सिर फोड़नेका यह मजेदार खेल खेलते रहेंगे; और सविनय अवज्ञा तो अब एक दूरकी चीज हो गई है। इधर हम इस तरह आपस में लड़ रहे हैं और उधर सरकार अपनी

  1. १. देखिए " टिप्पणियाँ ", १२-६-१९२४, उपशीर्षक “समरथको नहिं दोष गुसाई । "