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२८२. पत्र : वा० गो० देसाईको

श्रावण सुदी ६ [ ६ अगस्त, १९२४ ][१]

भाईश्री वालजी,

स्वामी कहते है कि वे 'शिमला में स्वराज्य'[२] शीर्षक आपका लेख आपको भेज चुके हैं । यह तो खो ही गया जान पड़ता है। अब तो उसे फिर लिख लें तो ठीक रहेगा । विदेशी कपड़ा बेचनेवाले व्यापारीका नौकर विदेशी कपड़ा पहननेवालोंके सगे-सम्बन्धियोंका त्याग नहीं कर सकता। यदि आप अशुद्धियाँ सुधारनेका काम जारी रखते तो अच्छा होता । उसे अभी भी कर डालें तो ठीक। 'नवजीवन' के किस लेखका अंग्रेजी अनुवाद किया जाना चाहिए, इस बातका निर्णय आप ही क्यों नहीं करते ?

मोहनदास के वन्देमातरम्

मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ६०२१) की फोटो नकलसे ।
सौजन्य : वा० गो० देसाई

२८३. अनुचित प्रहार

सरकारके बारेमें प्रायः जो कुछ कहा गया है उसकी सत्यता बार-बार सिद्ध हो रही है, अर्थात् जनताकी चीख-पुकारपर सरकार जो कुछ देती है उसमें भी वह सदा येन-केन-प्रकारेण अपनी ही बात ऊपर रखती है। प्रेस ऐक्ट तो रद कर दिया गया है। किन्तु राजविद्रोह तथा मानहानि सम्बन्धी कानूनोंके अन्तर्गत नई गतिविधियोंने उसका स्थान ले लिया है । प्रेस ऐक्टके अन्तर्गत सरकार जो कुछ कर सकती थी वहीं अब बिना उस कानूनके और बिना किसी कठिनाईके कर रही है । 'क्रॉनिकल' के विरुद्ध जो असाधारण निर्णय दिया गया है उससे मेरे इस मतकी पुष्टि ही होती है । यह विश्वास करना कठिन है कि कोई सरकारी कर्मचारी अपने कार्योंके सम्बन्ध में की गई उस टिप्पणीपर जो किसी सम्पादकने पत्रकारके रूपमें अपने व्यावसायिक कर्त्तव्यका पालन करते हुए की है, क्षतिपूर्ति के लिए अदालती कार्रवाई कर सकता है । मुझे मालूम हुआ है कि 'क्रॉनिकल' के विरुद्ध जो मुकदमा चलाया गया है वह इस तरहका पहला ही मुकदमा नहीं है। लाहोरके 'वन्देमातरम्' तथा जमींदार' नामक अखबारोंको ऐसी ही परिस्थितियोंमें हर्जाना देना पड़ा था। एक रद-

  1. १. पत्र में शिमला सम्बन्धी लेखके उल्लेखसे स्पष्ट है कि यह पत्र १९२४ में लिखा गया था । उस वर्ष श्रावण सुदी ६, ६ अगस्तको थी । देखिए “ पत्र: वा० गो० देसाईको ”, ४-८-१९२४ भी ।
  2. २. लेखका शीर्षक था " स्वराज्य में शिमला " ।